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दृष्टि अध्ययन : आमुख दृष्टि अध्ययन के अन्तर्गत तीन प्रकार की दृष्टियों का विवेचन हुआ है। तीन दृष्टियां हैं-१. सम्यग्दृष्टि, २. मिथ्यादृष्टि और ३. मिश्रदृष्टि। इनमें से कोई एक दृष्टि प्रत्येक जीव में पाई जाती है। कोई भी जीव दृष्टिविहीन नहीं होता, चाहे वह एकेन्द्रिय का पृथ्वीकाय जीव हो या सिद्ध जीव। सबमें दृष्टि विद्यमान है। यह दृष्टि जीवन एवं जगत् के प्रति उसके दृष्टिकोण की परिचायक है। जो जीव संसार में सुख समझते हैं, विषयभोगों में रमते हैं वे मिथ्यादृष्टि होते हैं। जो जीव इनसे ऊपर उठकर मोक्षसुख के अभिलाषी होते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। इनकी विषय भोगों में आसक्ति तीव्र नहीं रहती। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए सात प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होना आवश्यक है। वे सात प्रकृतियां हैं-अनन्तानुबंधी कषाय का चतुष्क, सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय एवं मिश्रमोहनीय। जब मोहकर्म की ये सात प्रकृतियाँ क्षीण होती हैं तभी सम्यग्दृष्टि बन पाती है। इसे दृष्टि की निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति का अर्थ है निष्पत्ति या निर्मिति। जब सम्यग्दर्शन भी न हो, मिथ्यादृष्टि भी न हों तो उसे सम्यग्मिध्यादृष्टि कहा जाता है। मलयगिरि प्रज्ञापनासूत्र की वृत्ति (पत्रांक ३८८) में लिखते हुए कहते हैं कि जिनेन्द्र प्रज्ञप्त जीवादि तत्त्वों पर अविपरीत दृष्टि का होना सम्यग्दृष्टि है तथा जिनेन्द्र प्रज्ञप्त तत्त्वों पर विप्रतिपत्ति होना मिथ्यादृष्टि है। जिसे जिनेन्द्रप्रज्ञप्त तत्त्वों पर सम्यक्श्रद्धा भी न हो और विप्रतिपत्ति भी न हो, वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है। उसे जिनप्रज्ञप्त तत्त्वों के सम्बन्ध में रुचि भी नहीं होती और अरुचि भी नहीं होती। ___समुच्चय की अपेक्षा नैरयिकों एवं देवों में तीनों प्रकार की दृष्टि पायी जाती है। गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक एवं गर्भज मनुष्यों में भी ये तीनों दृष्टियां पायी जाती हैं। सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों में सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि ये दो दृष्टियां कही गई है तथा सम्मूर्छिम मनुष्यों में एक मात्र मिथ्यादृष्टि मानी गई है। एकेन्द्रिय जीवों में भी मात्र मिथ्यादृष्टि होती है। जबकि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीवों में दो दृष्टियां मानी जाती हैंसम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि। सिद्ध जीव मात्र सम्यग्दृष्टि होते हैं, वे मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। देवों में पाँच अनुत्तरविमान (के देवों) में भी मात्र सम्यग्दृष्टि रहती है अन्य नहीं।
दृष्टि का सम्बन्ध आत्मा से है, इसलिए वह संसारी जीवों में भी होती है तो सिद्धों में भी। दृष्टि सिद्धों की भांति अगुरुलघु होती है, वह गुरुलघुता से रहित होती है। जीव जिस दृष्टि से क्रिया करता है वह दृष्टि उस क्रिया की अपेक्षा करण कही जाती है। इस प्रकार दृष्टिकरण भी तीन ही होते हैं जो दृष्टि के तीन भेद हैं; यथा-सम्यग्दृष्टिकरण, मिथ्यादृष्टिकरण और सम्यग्मिध्यादृष्टिकरण। जिस जीव में जो दृष्टि पायी जाती है वही दृष्टिकरण उसमें उपलब्ध होता है। इन दृष्टियों से तीन प्रकार का बंध होता है-१.जीवप्रयोगबंध, २. अनन्तरबंध और ३. परम्परबन्ध।
कायस्थिति की अपेक्षा से विचार करने पर ज्ञात होता है कि एक तो वे जीव हैं जिनमें एक बार सम्यग्दृष्टि उत्पन्न हो जाने के पश्चात् पुनः समाप्त नहीं होती। उनकी इस सम्यग्दृष्टि को सादि अपर्यवसित कहते हैं, किन्तु कुछ ऐसे भी जीव हैं जिनमें सम्यग्दृष्टि प्रकट होने के पश्चात् पुनः चली जाती है, वह सम्यग्दृष्टि सादि सपर्यवसित कही जाती है। यह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक तथा अधिकतम कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक रहती है। मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार की होती है-१. सादि सपर्यवसित, २. अनादि अपर्यवसित एवं ३. अनादि सपर्यवसित। इनमें जो सादि सपर्यवसित है उसकी जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काय स्थिति देशोन अपार्धपुद्गल परावर्तन काल है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि अर्थात् मिश्रदृष्टि जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। कायस्थिति के अनुसार ही दृष्टियों के अन्तरकाल का भी इस अध्ययन में निरूपण हुआ है।
अल्पबहुत्व की अपेक्षा सबसे अल्प सम्यग्मिध्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) जीव हैं। इनका तीसरा गुणस्थान माना गया है। यह गुणस्थान एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं रहता। फिर उसके अनन्तर जीव मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि ही होता है। मिश्रदृष्टि से सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं तथा सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं। यह संसार मिथ्यादृष्टि जीवों से भरा पड़ा है।
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