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दं.१८-१९. एवं जाव चउरिंदिया। णवरं-चक्खुदसणं अब्भइयं चउरिदियाणं। दं.२०.पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया जहाणेरइया।
दं.२१. मणूसा जहा जीवारे।
दं. २२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइया
-पण्ण, प. २९,सु. १९२८-१९३५ ८. केवलिसु एगसमए दोउवओगाणं णिसेहोप. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहि, हेऊहिं,
उवमाहिं, दिळंतेहिं, वण्णेहिं, संठाणेहिं, पमाणेहिं, पडोयारेहिं जं समयं जाणइ तं समयं पासइ, जं समयं पासइ तं समयं जाणइ?
उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवीं आगारेहिं जाव पडोयारेहिं जं समयं जाणइ णो तं समयं पासइ, ज समय
पासइणो तं समयं जाणइ?" उ. गोयमा ! सागारे से णाणे भवइ,अणागारे से दंसणे भवइ।
द्रव्यानुयोग-(१) दं. १८-१९. इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शन अधिक कहना चाहिए। दं. २०. पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की उपयोग युक्तता नैरयिकों के समान है। दं. २१. मनुष्यों की उपयोग युक्तता समुच्चय जीवों के समान है। दं. २२-२४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की
उपयोग युक्तता नैरयिकों के समान है। ८. केवलियों में एक समय में दो उपयोगों का निषेधप्र. भन्ते ! केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से, हेतुओं
से, उपमाओं से, दृष्टान्तों से, वर्णों से, संस्थानों से, प्रमाणों से और प्रत्यवतारों (उपकरणों) से सहित जिस समय जानते हैं क्या उस समय देखते हैं तथा जिस समय देखते हैं क्या उस
समय जानते हैं? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों यावत् प्रत्यवतारों सहित जिस समय जानते हैं उस समय नहीं देखते हैं और जिस
समय देखते हैं उस समय नहीं जानते हैं ?" उ. गौतम ! जो साकार है वह ज्ञान है और जो अनाकार है वह
दर्शन है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है"केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों यावत् प्रत्यवतारों सहित जिस समय जानते हैं उस समय देखते नहीं हैं और जिस समय देखते हैं उस समय जानते नहीं हैं।" इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प पर्यन्त, ग्रैवेयकविमान, अनुत्तरविमान, ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध
के लिए भी जानना चाहिए। प्र. भन्ते ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से,
अहेतुओं से, अनुपमाओं से, अदृष्टान्तों से, अवर्णों से, असंस्थानों से, अप्रमाणों से और अप्रत्यवतारों (उपकरणों) से
रहित जिस समय देखते हैं क्या उस समय नहीं जानते हैं ? उ. हाँ, गौतम ! केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत्
अप्रत्यवतारों से जिस समय देखते हैं उस समय जानते
नहीं हैं। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत् अप्रत्यावतारों
से जिस समय देखते हैं उस समय जानते नहीं हैं।" उ. गौतम ! जो अनाकार होता है वह दर्शन (देखना) है और जो
साकार है वह ज्ञान (जानता) है।
से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-- "केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवीं आगारेहिं जाव पडोयारेहिं जं समयं जाणइ णो तं समयं पासइ, जं समयं पासइणो तं समयं जाणइ। एवं जाव अहेसत्तमपुढविं। एवं सोहम्मं कप्पं जाव अच्चुय गेवेज्जगविमाणे, अणुत्तरविमाणे, ईसीपब्भारं पुढवीं, परमाणुपोग्गलं, दुपएसियं खंधं जाव अणंतदेसियं खंध।
प. कैवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवीं अणागारेहिं,
अहेऊहिं, अणुवमाहिं, अदिळं तेहिं अवण्णेहिं, असंठाणेहिं, अपमाणेहिं,अपडोयारेहिं पासइण जाणइ?
उ. हता, गोयमा ! केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं
अणागारेहिं जाव अपडोयारेहिं पासइ ण जाणइ।
प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"केवली णं इम रयणप्प पुढवि अणागारेहिं जाय
अपडोयारेहिं पासइण जाणइ? उ. गोयमा ! अणागारे से दसणे भवइ,सागारे से णाणे भवइ.
१. (क) जीवा. पडि.१.सु.३५
(ख) जीवा. पडि.३,सु. ९७(१) २. जीवा.पडि.१.सु.४२
३. (क) विया.स.१६, उ.७, सु.१
(ख) जीवा. पडि.१ सु.४२ (ग) जीवा. पडि.३ सु.२०१(ई)