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विकुर्वणा अध्ययन
प. अणगारे णं भंते! भावियप्पा बाहिरए पोगले परियाइत्ता पभू एवं महं गामरूवं वा नगररूवं वा जाब सन्निवेसरूवं वा विकुव्वित्तए ? उ. हंता गोयमा ! पभू ।
प. अणगारे णं भंते! भावियप्पा केवइयाई पभू गामरूवाई विकुव्वित्तए ?
उ. गोयमा ! से जहानामए जुवई जुवाणे हत्येणं हत्थे गेहेज्जा जाव नो विकुव्विंसुवा, विकुव्वंति वा, विकुव्विस्संति वा ।
एवं जाव सन्निवेसरूवं वा ।
- विया. स. ३, उ. ६, सु. ११-१३ १३. विकुब्वणाकारी अणगाररस आराहग विराहगत परूवणं
प. से भंते! किं मायी विकुव्वइ, अमायी विकुव्वइ ?
उ. गोयमा ! मायी विकुव्वइ, नो अमायी विकुव्वइ ।
प से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ
"मायी विकुव्वइ, नो अमायी विकुव्वइ ?”
उ. गोयमा ! मायी णं पणीयं पाण- भोवणं भोच्चा- भोच्चा वामेइ,
तस्स णं तेणं पणीएणं पाणभोवणेणं अट्ठि अट्ठिमिंजा बहलीभवंति पयणुए मंस-सोणिए भवइ,
जे वि य से अहाबादरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति तं जहा
सोइदियत्ताए जाब फासिंदियत्ताए अट्ठि अट्ठमिंज केस - मंसु - रोम - नहत्ताए सुक्कत्ताए सोणियत्ताए ।
मायी पाण-भोयणं भोच्चा भोच्चा णो वामेइ, तस्स णं तेणं लूहेणं पाण - भोयणेणं अट्ठि- अट्ठिमिंजा पतणूभवइ, बहले मंस सोणिए.
जे वि य से अहाबादरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति तं जहा
उच्चारत्ताए पासवणत्ताए जाव सोणियत्ताए । से तेणट्ठेणं गोवमा ! एवं बुच्चइ
"मायी विकुब्वइ, नो अमायी विकुब्बइ।"
,
मायी णं तस्स ठाणरस अणालोइयपडिक्कते कालं करेड़ णत्थि तस्स आराहणा ।
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प्र. भंते! भावितात्मा अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक बड़े ग्रामरूप की, नगररूप की यावत् सन्निवेश के रूप की विकुर्वणा कर सकता है?
उ. हाँ, गौतम ! कर सकता है।
प्र. भन्ते । भावितात्मा अनगार कितने ग्रामरूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ?
उ. गौतम! जैसे युवक-युवती का हाथ अपने हाथ से दृढ़तापूर्वक पकड़ कर चलता है यावत् इतने रूपों की विकुर्वणा कभी की नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं।
इसी प्रकार सचिवेशरूपों पर्यन्त की विकुर्वणा कहनी चाहिए।
१३. विकुर्वणाकारी अणगार के आराधक विराधकत्व का
प्ररूपण
प्र. भन्ते ! क्या मायी अनगार विकुर्वणा करता है या अमी अनगार विकुर्वणा करता है ?
उ. गौतम ! मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायी अनगार विकुर्वणा नहीं करता है।
प्र. भन्ते ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि
'मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायी अनगार विकुर्वणा नहीं करता है ?"
उ. गौतम ! मायी अनगार प्रणीत भोजन-पान करता है। इस प्रकार बार-बार भोजन-पान करके वह वमन करता है।
उस भोजन-पान से उसकी हड्डियां और हड्डियों में रही मज्जा गाढ़ हो जाती है, उसका रक्त और मांस पतला हो जाता है।
उस भोजन के जो स्थूल पुद्गल होते हैं, उनका परिणमन उस-उस रूप में होता है, यथा
श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय रूप में तथा हड्डियों, हड्डियों की मज्जा, केश, दाढ़ी, मूंछ, रोम, नल, वीर्य, रक्त के रूप में वे परिणत होते हैं।
अमायी अनगार तो रुक्ष भोजन पान का सेवन करता है और ऐसे रूक्ष भोजन-पान का उपभोग करके वह वमन नहीं करता । उस रूक्ष भोजन-पान के सेवन से उसकी हड्डियां तथा हड्डियों की मज्जा पतली होती है तथा उसका मांस और रक्त गाढ़ा हो जाता है।
उस भोजन-पान के जो स्थूल पुद्गल होते हैं, उनका परिणमन उस-उस रूप में होता है, यथा
मल, मूत्र यावत् रक्तरूप में परिणमन हो जाता है।
इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'मायी अणगार विकुर्वणा करता है और अमायी अनगार विकुर्वणा नहीं करता है।"
मायी अनगार अपने द्वारा किए गए वैक्रियकरणरूप की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना यदि काल करता है तो उसके आराधना नहीं होती।