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उच्छ्वास अध्ययन : आमुख
संसारस्थ चारों गतियों के जीव जब तक औदारिक, वैक्रियादि शरीरों से युक्त रहते हैं, तब तक उनमें निरन्तर श्वास-प्रश्वास की क्रिया चलती रहती है। सजीव एवं निर्जीव वस्तुओं में भेद करते समय आधुनिक विज्ञान भी श्वसन क्रिया को जीव में आवश्यक मानता है। शरीर में श्वसन-क्रिया की निरन्तरता में यदि कुछ काल तक व्यवधान उत्पन्न हो जाय तो मृत्यु तक संभव है। ___ यह श्वसन क्रिया मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, कीड़ों, मकोड़ों आदि में तो हमें स्पष्टतः दिखाई देती है, किन्तु आगम के अनसुार वैक्रिय शरीरधारी नैरयिकों एवं देवों में भी निरन्तर श्वसन क्रिया चलती रहती है। यही नहीं पृथ्वीकाय, अकाय आदि एकेन्द्रिय जीव भी इस क्रिया से रहित होकर जीवनयापन नहीं करते हैं। उनमें भी निरन्तर यह क्रिया चलती रहती है।
भगवान् महावीर से उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम ने प्रश्न किया कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में होने वाले आन-प्राण एवं श्वासोच्छ्वास को तो हम जानते देखते हैं, किन्तु पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय पर्यन्त के एकेन्द्रिय जीव में आन-प्राण एवं श्वासोच्छ्वास होता है या नहीं ? भगवान् ने इस प्रश्न का उत्तर दिया-हे गौतम ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भी श्वासोच्छ्वास करते हैं। इनमें भी आन-प्राण एवं उच्छ्वास निश्वास की क्रियाएं होती हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान महावीर प्रथम वैज्ञानिक थे। आधुनिक विज्ञानवेत्ता वनस्पति में श्वसनक्रिया सिद्ध करने में सफल हो गए हैं, किन्तु पृथ्वीकाय आदि जीवों में श्वसन क्रिया सिद्ध करना उनके लिए अभी शेष है। महावीर की दृष्टि में पृथ्वीकायादि सभी जीव श्वसन क्रिया करते हैं।
आगम में श्वसन-क्रिया को प्रतिपादित करने वाले आन, प्राण, उच्छ्वास एवं निश्वास इन चार शब्दों का प्रयोग हुआ है। सभी जीव ये चार क्रियाएं करते हैं। उनमें स्वाभाविक रूप से श्वास ग्रहण करने एवं छोड़ने की जो क्रिया है उसे क्रमशः आन एवं प्राण कहा जा सकता है तथा ऊँचा श्वास लेने एवं श्वास बाहर निकालने को उच्छ्वास एवं निश्वास कह सकते हैं। कुल मिलाकर ये चारों शब्द श्वसनक्रिया को ही इंगित करते हैं।
चौबीस दण्डकों में कौन से जीव कितने काल से आन, प्राण उच्छ्वास और निश्वास क्रिया करते हैं, इसका प्रस्तुत अध्ययन में विस्तृत निरूपण है। तदनुसार नैरयिक जीवों में आन, प्राण, उच्छ्वास एवं निःश्वास की यह श्वसन क्रिया निरन्तर चलती रहती है। देवों में इसके कालमान की भिन्नता है। असुरकुमार देव जघन्य सात स्तोक (काल का एक माप) तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक एक पक्ष से यह क्रिया करते हैं। नागकुमारों का उत्कृष्ट काल अनेक मुहूतों का है। स्तनितकुमार आदि शेष आठ भवनपति देवों की श्वसनक्रिया का काल नागकुमारों की भांति है। ज्योतिष्क देव जघन्य अनेक मुहूर्त के पश्चात् आन-पान एवं श्वासोच्छ्वास की क्रिया करते हैं। उत्कृष्ट काल भी उनके लिए अनेक मुहूर्त ही है। वैमानिक देव जघन्य अनेक मुहूर्तों के पश्चात् तथा उत्कृष्ट तेतीस पक्ष पश्चात् यह क्रिया करते हैं। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं मनुष्यों में श्वसन क्रिया विमात्रा (काल माप) से होती है। इस अध्ययन में वैमानिक देवों के विभिन्न प्रकारों का पृथक् पृथक् श्वासोच्छ्वास का जघन्य एवं उत्कृष्ट कालमान का निर्देश हुआ है।
पृथ्वीकाय के जीव पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय के जीवों के श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं। इसी प्रकार अकाय के जीव समस्त पृथ्वीकाय आदि स्थावरकायिकों को ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं। यही बात तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों पर भी लागू होती है। नैरयिक जीव श्वासोच्छ्वास के रूप में अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ पुद्गलों को ग्रहण करते हैं तो देव इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ आदि पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। मनुष्य एवं तिर्यञ्चगति के अन्य जीवों का उल्लेख इस अध्ययन में नहीं हुआ है कि वे किस प्रकार के पुद्गलों को श्वासोच्छ्वास क्रिया में ग्रहण करते हैं। इसका सम्बन्ध जीव के शुभाशुभ कर्मों से जोड़ा जा सकता है, किन्तु यह निश्चित है कि ये सभी जीव वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त पुद्गलों को श्वास-उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं।
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