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द्रव्यानुयोग-(१) काया के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण किया गया है कि जीव का सम्बन्ध होने के पूर्व भी काया होती है, कायिक पुद्गलों को ग्रहण करते समय भी काया होती है तथा कायिक पुद्गलों के ग्रहण करने का समय बीत जाने पर भी काया होती है।
मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति के आधार पर दण्ड भी तीन प्रकार के कहे गए हैं-१. मनोदण्ड, २. वचन दण्ड और ३. कायदण्ड।
जब मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति का गोपन किया जाता है तो उसे गुप्ति कहते हैं। संवर के लिए गुप्ति का अत्यधिक महत्त्व है। वह गुप्ति भी तीन प्रकार की ही होती है-१. मनोगुप्ति, २. वचनगुप्ति और ३. कायगुप्ति। मन, वचन एवं काया से जब दुष्प्रवृत्ति की जाती है तो उसे दुष्प्रणिधान एवं सुप्रवृत्ति की जाती है तो उसे सुप्रणिधान कहा जाता है। सामान्य रूप से प्रणिधान तीन प्रकार का है-मनः प्रणिधान, वचन प्रणिधान और काय प्रणिधान। दुष्प्रणिधान एवं सुप्रणिधान के भी ये ही तीन-तीन भेद होते हैं। जिस जीव में जिस योग की उपलब्धि होती है उसमें वे ही प्रणिधान पाये जाते हैं। स्थानांग सूत्र में उपकरण-प्रणिधान को मिलाकर प्रणिधान के चार भेद भी किए गए हैं।
मन, वचन एवं काया के तीन योगों में से प्रथम दो अगुरुलघु हैं जबकि अंतिम (काय) योग गुरुलघु होता है।
कायस्थिति की अपेक्षा से सयोगी जीव दो प्रकार के हैं-अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित। मनोयोगी जीव मनोयोगी अवस्था में जघन्य एक समय एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रह पाता है। यही काल वचनयोगी का भी है। काययोगी के लिए जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट वनस्पतिकाल निर्धारित है। अयोगी जीव सादि अपर्यवसित है। मनोयोगी एवं वचनयोगी का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल वनस्पतिकाल होता है। काययोगी का जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होता है।
अल्पबहुत्व का विवेचन तीन योगों एवं पन्द्रह योगों दोनों के अनुसार हुआ है। किन्तु सयोगी, मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी जीवों का अल्पबहुत्व जानें तो सबसे अल्प मनोयोग वाले जीव हैं, वचनयोग वाले उनसे असंख्यातगुणे हैं, अयोगी उनसे अनन्तगुणे हैं, काययोगी उनसे अनन्तगुणे हैं और सयोगी विशेषाधिक हैं।
इस अध्ययन में प्रसंगवश समयोगी एवं विषमयोगी का भी चौबीस दण्डकों में निरूपण हुआ है।