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भाषा अध्ययन
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जीव भाषा के रूप में जिन द्रव्यों को ग्रहण करता है उन्हें वह सान्तर भी ग्रहण करता है और निरन्तर भी ग्रहण करता है । सान्तर ग्रहण करता हुआ जघन्य एक समय में ग्रहण करता है और उत्कृष्ट असंख्यात समय का अन्तर करके ग्रहण करता है। निरन्तर ग्रहण करता हुआ जघन्य दो समय तक और उत्कृष्ट असंख्यात समय तक निरन्तर ग्रहण करता है।
जीव भाषावर्गणा के जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, वह उन्हें सत्यभाषा के रूप में निकालता है। जिन द्रव्यों को वह मृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें मृषाभाषा के रूप में निकालता है। इसी प्रकार सत्यमृषा एवं असत्यामृषा भाषा के रूप में द्रव्यों को ग्रहण करता है तो वह उन्हीं भाषाओं के रूप में उन द्रव्यों को निकालता है। जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करके निकालता है वह उन्हें सान्तर निकालता है। एक समय में ग्रहण करता है और एक समय में निकालता है। जीव भाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों को भिन्नों एवं अभिन्नों के रूप में निकालता है। जो जीव भिन्नों को निकालता है, वह भिन्न द्रव्य अनन्तगुणवृद्धि को प्राप्त होते हुए लोकान्त को स्पर्श करता है और जो जीव अभिन्नों को निकालता है वह अभिन्न द्रव्य असंख्यात अवगाहनवर्गणा तक जाकर भेद को प्राप्त हो जाता है। फिर संख्यात योजनों तक आगे जाकर विध्वंस को प्राप्त हो जाता है।
भाषा द्रव्यों के पांच भेद निरूपित हैं - १. खण्ड भेद, २. प्रतर भेद, ३. चूर्णिका भेद और ५. उत्कटिका भेद। इन पांचों भेदों का स्वरूप इस अध्ययन में स्पष्टरूपेण प्रस्तुत है।
जितने भाषा के भेद हैं, उतने ही भाषानिवृति के भेद है और उतने ही भाषा करण के भेद है। इस अपेक्षा से भाषानिवृति एवं भाषाकरण के चार-चार भेद हैं- सत्य, मृषा, सत्यमृषा एवं असत्यामृषा ।
भांषा का प्रयोग करने वाले जो भाषक जीव हैं, उनकी कायस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। अभाषक जीव तीन प्रकार के हैंअनादि अपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित तथा सादि सपर्यवसित। इनमें सादि सपर्यवसित की कार्यस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है।
भाषक का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। सादि सपर्यघसित अभाषक का अन्तरकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। अल्पबहुत्व की अपेक्षा विचार किया जाय तो सबसे अल्प सत्यभाषक जीव हैं। उनसे सत्यमृषा भाषक असंख्यात गुणे हैं, उनसे असत्यामृषा भाषक असंख्यात गुणे हैं तथा उनसे अभाषक जीव अनन्तगुणे हैं।
इस अध्ययन के अन्त में देवों की भाषा, शक्रेन्द्र की भाषा एवं केवली की भाषा का निरूपण है, जिसके अनुसार महर्द्धिक यावत् महासुखी देव हजार रूपों की विकुर्वणा करके हजार भाषाएं बोलने में समर्थ हैं, किन्तु वह वस्तुतः एक ही भाषा होती है, हजार नहीं। देव अर्धमागधी भाषा बोलते हैं। देवेन्द्र देवराज शक्र की भाषा सावद्य भी होती है और निरवद्य भी होती है। यतना से बोलने पर निरवद्य होती है तथा अयतना से बोलने पर सावद्य होती है। केवली दो ही प्रकार की भाषा बोलते हैं-सत्यभाषा और असत्यामृषा भाषा। वे कभी भी मृषा एवं सत्य-मृषा भाषा नहीं बोलते हैं।
इस प्रकार इस भाषा अध्ययन में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य संकलित हैं। कुछ तथ्य वचन योग, वर्गणा एवं पुद्गल से सम्बद्ध हैं अतः उन्हें वहां पर देखा जा सकता है।