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भाषा अध्ययन : आमुख
विचारों का सम्प्रेषण करने के लिए भाषा एक सशक्त माध्यम है। भाषा की चर्चा दार्शनिक युग में पर्याप्त रूप से हुई है। भर्तृहरि जैसे दार्शनिकों ने व्याकरण दर्शन में वाक्यपदीय ग्रंथ रचकर भाषा का दर्शन प्रस्तुत कर दिया है। मीमांसा एवं न्यायदर्शन में भी शब्द एवं अर्थ की चर्चा हुई है। किन्तु जैनागमों में भाषा के सम्बन्ध में जो निरूपण उपलब्ध होता है वह विशिष्ट है एवं आधुनिक युग में भी प्रासङ्गिक है।
जैनागमों के अनुसार भाषा का मूल कारण जीव है, उसकी उत्पत्ति शरीर से होती है, उसका आकार वज्र जैसा है, उसका अन्त लोकान्त में होता है। लोकान्त में अन्त कहने का आशय भाषा के पुद्गलों का लोकान्त तक पहुँचने से है।
भाषा के मुख्यतः चार भेद किए जाते हैं-१. सत्य भाषा, २. मृषा भाषा, ३. सत्यमृषा भाषा और ४. असत्यामृषा भाषा। विस्तार से जब भाषा के भेदों का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि भाषा दो प्रकार की है-१. पर्याप्तिका (प्रतिनियत) और २. अपर्याप्तिका (अप्रतिनियत)। पर्याप्तिका भाषा दो प्रकार की होती है-१. सत्य, २. मृषा। अपर्याप्तिका भाषा के भी दो भेद होते हैं-१. सत्यमृषा और २. असत्यामृषा। सत्य पर्याप्तिका भाषा के जनपदसत्या, सम्मत सत्या आदि दस भेद होते हैं। मृषा पर्याप्तिका भाषा के क्रोधनिःसृता, माननिःसृता आदि दस भेद हैं। सत्या-मृषा अपर्याप्तिका भाषा के उत्पन्नमिश्रिता, विगतमिश्रिता आदि दस भेद होते हैं, जबकि असत्यामृषा अपर्याप्तिका भाषा के आमंत्रणी, आज्ञापनी आदि बारह भेद प्रतिपादित हैं।
भाषा जब बोली जाती है तभी वह भाषा कहलाती है, उसके पूर्व एवं पश्चात् नहीं। भाषा अवधारिणी भी होती है और प्रज्ञापनी भी होती है। अवधारिणी भाषा स्यात् सत्य होती है, स्यात् मृषा होती है, स्यात् सत्य मृषा होती है और स्यात् असत्यामृषा होती है। जब वह भाषा आराधनी होती है तब सत्य होती है। जब विराधनी होती है तो असत्य होती है, जब आराधनी एवं विराधनी दोनों होती है तब सत्य-मृषा होती है और जब न आराधनी हो, न विराधनी हो और न दोनों हो तब वह असत्यामृषा कहलाती है। प्रज्ञापनी भाषा मृषा जैसी प्रतीत होती है, किन्तु वह मृषा नहीं होती है। उसमें किसी सत्य को आदेशात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
भाषा का प्रयोग करने वाले जीव को भाषक तथा भाषा का प्रयोग नहीं करने वाले जीव को अभाषक कहा जाता है। संसार में कुछ जीव भाषक हैं तथा कुछ अभाषक हैं। एकेन्द्रिय जीव अभाषक होते हैं क्योंकि वे भाषा का प्रयोग नहीं करते। इसी प्रकार सिद्ध जीव एवं शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली भी अभाषक होते हैं। यही नहीं द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में जो अपर्याप्तक जीव होते हैं वे भी अभाषक होते हैं। मात्र पर्याप्तक द्वीन्द्रिय से लेकर पर्याप्तक पंचेन्द्रिय तक के जीव भाषक होते हैं। इस दृष्टि से एकेन्द्रिय के ५ दण्डकों को छोड़कर शेष दण्डकों के जीव दोनों प्रकार के होते हैं-भाषक भी और अभाषक भी। भाषा पर्याप्ति जब तक पूर्ण नहीं होती तब तक वे अभाषक रहते हैं तथा पर्याप्ति के पूर्ण होने पर वे भाषक हो जाते हैं।
भाषक नैरयिक जीव सत्य, मृषा, सत्यमृषा एवं असत्यामृषा रूप चारों प्रकार की भाषाएं बोलते हैं। इसी प्रकार समस्त देव एवं मनुष्यों में भी चारों प्रकार की भाषाएं मिलती हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक तक के जीव मात्र एक असत्यामृषा भाषा बोलते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीब कदाचित् शिक्षापूर्वक या उत्तरगुणलब्धि की अपेक्षा से अन्य तीन प्रकार की भाषाएं भी बोल लेते हैं।
सत्य भाषा आदि चारों प्रकारों की भाषाओं को उपयोगपूर्वक बोलने वाला जीव आराधक होता है किन्तु इससे विपरीत असंयत, अविरत, पापकर्म का अप्रतिघातक एवं प्रत्याख्यान न करने वाला जीव चारों प्रकार की भाषाएं बोलता हुआ विराधक होता है।
भाषा का प्रयोग यद्यपि जीव करते हैं, तथापि भाषा जीव नहीं होती। वह आत्मा से भिन्न रूपी, अचित्त एवं अजीव होती है। जीव भाषा के रूप में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं। जिन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है उन्हें वह द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से एवं भाव से ग्रहण करता है। द्रव्य से अनन्तप्रदेशी को, क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशावगाढ़ को, काल से एक समय की स्थिति वाले यावत् असंख्यात समय की स्थिति वाले को और भाव से वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श वाले पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करता है। वर्ण की अपेक्षा एक वर्ण वाले यावत् पांच वर्ण वाले को, गंध की अपेक्षा एक गन्ध वाले यावत् दो गन्ध वाले को, रस की अपेक्षा एक रस वाले यावत् पांच रस वाले को तथा स्पर्श की अपेक्षा दो स्पर्श वाले यावत् चार स्पर्श वाले पुद्गलों को ग्रहण करता है। वर्णादि में एक गुण यावत् अनन्तगुण की तरतमता भी संभव है।
भाषा योग्य पुद्गलों को जीव स्पृष्ट, अवगाढ़, अणु, स्थूल, ऊर्ध्व, अधः, स्वविषयक, आनुपूर्वी युक्त तथा छह दिशाओं से ग्रहण करता है इस पर भी इस अध्ययन में निरूपण हुआ है।
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