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विकुर्वणा अध्ययन
उ. गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउचितए पुहतं पि पभू विउव्वित्तए,
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णो चेव णं संपत्तीए विउव्विंसु वा विउव्वंति वा, विउव्विस्संति या
५. भावदेवा जहा भवियदव्यदेवा ।
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- विया. स. १२, उ. ९, सु. १७-२०
१९. चउबिहे देव देविंदसामाणियाणं इडिट बिउब्वणाई परूवणं
तेण कालेणं तेणं समएण मोया नाम नगरी होत्या, वण्णओ।
तीसे णं मोयाए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिने दिसीभाए णं नंदणे नाम घेइए होत्या वण्णओ
तेणं कालेणं सामी समोसढे, परिसा निग्गच्छइ पडिगया परिसा ।
तेणें कालेन तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्ये अंतेवासी अग्गिभूई नाम अणगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्तेहे जाब पज्जुवासमाणे एवं वयासी
प. चमरे णं भंते! असुरिंदे असुरराया के महिढीए ? के महज्जुईए ? के महाबले ? के महायसे? के महासोक्खे ? के महाणुभागे ? केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए ?
उ. गोयमा । चमरे णं असुरिंदे असुरराया महिए जाव महाणुभागे ।
से णं तत्थ चोत्तीसाएभवणावाससयसहस्साणं, चउसठ्ठीए सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं जाव विहरइ ।
एमहिड्ढीए जाव ए महाणुभागे, एवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए
से जहानामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा,
चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया,
वामेव गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया वेव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समोहण्णित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंड निसिरइ, तं जहा - रयणाणं जाव रिट्ठाणं, अडाबायरे पोग्गले परिसाडेड परिसाडेत्ता अहासहमे पोग्गले परियाइय
परियाइयत्ता दोच्चं पिवेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ समोहण्णित्ता
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उ. गौतम ! वह एक रूप की विकुर्वण करने में समर्थ हैं और अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में भी समर्थ हैं।
किन्तु शक्ति होते हुए भी उन्होंने कभी विकुर्वणा नहीं की, नहीं करते हैं और न करेंगे।
५. जिस प्रकार भव्य द्रव्यदेव का कथन किया है, उसी प्रकार भावदेव का भी कथन करना चाहिए।
१९. चतुर्विध देव - देवेन्द्र और सामानिकादिकों की ऋद्धि विकुर्वणा आदि का प्ररूपण
उस काल और उस समय में "मोका" नाम की नगरी थी। उसका वर्णन करना चाहिए।
इस मोका नगरी के बाहर उत्तरपूर्व के दिशाभाग में, अर्थात् ईशानकोण में नन्दन नाम का चैत्य (उद्यान ) था । उसका वर्णन करना चाहिए।
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहां पधारे। (श्रमण भगवान् महावीर का आगमन जानकर ) परिषद् (उनके दर्शनार्थ) निकली (भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर ) परिषद् वापस चली गई।
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के द्वितीय अन्तेवासी गौतमगोत्री सात हाथ ऊंचे यावत् शरीर सम्पदा से युक्त अग्निभूति नामक अनगार ने पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछा
प्र. भंते! असुरों का इन्द्र असुरराज समरेन्द्र कितनी बड़ी ऋद्धि
वाला है? कितनी बड़ी द्युति वाला है? कितने महान् बल से सम्पन्न है? कितना महान यशस्वी है? कितने महान् सुखों से सम्पन्न है? कितने महान् प्रभाव वाला है? और वह कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ?
उ. गौतम ! असुरों का इन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला है। चावतु महाप्रभावशाली है।
वह वहां चौंतीस लाख भवनावासों पर, चौंसठ हजार सामानिक देवों पर और तेतीस प्रायस्त्रिंशक देवों पर आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है।
वह चमरेन्द्र इतनी बड़ी ऋद्धि वाला है यावत् ऐसे महाप्रभाव वाला है और इस प्रकार की विक्रिया करने में समर्थ है,
हे गौतम! जैसे कोई युवा पुरुष (अपने हाथ से युवती स्त्री के हाथ को (दृढ़तापूर्वक) पकड़ता है,
अथवा जैसे गाड़ी के पहिये की नाभि आरों से अच्छी तरह जुड़ी हुई एवं सुसम्बद्ध होती है।
इसी प्रकार हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है और समवहत होकर संख्यात योजन प्रमाण वाला दण्ड निकालता है तथा उसके द्वारा रनों के यावत् रिष्ट रत्नों के स्थूल पुद्गलों को झाड़ देता है और सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है।
ग्रहण करके फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है, समवहत होकर