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विकुर्वणा अध्ययन एवं लेतए बि
नवर-साइरेगे अट्ठ केवलकचे जंबुद्दीवे दीवे।
महासुक्के सोलस केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे ।
सहस्सारे साइरेगे सोलस केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे।
एवं पाणए वि
वरं - बत्तीसं केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे ।
एवं अच्चुए वि.
नवर-साइरेगे बत्तीस केवलकप्पे जंबुद्दीचे दीवे।
अन्नं तं चेव ।
सेव भंते! सेवं भंते! ति तच्चे गोयमे वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता जाव विहरइ | -विया. स. ३, उ. १, सु. २-३०
२०. देवे जहेच्छया विकुब्वणा करणाकरण सामत्थे
प. दो भंते! असुरकुमारा एमसि असुरकुमारावाससि असुरकुमार देवत्ताए उववण्णा,
तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं विउव्विस्सामीति
उन्जु विउब्ब, क विउब्विस्तामीति वक विउब जं जहा इच्छइ तंतहा विउव्वइ ।
एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं विउव्विस्सामीति वकं विउब्बइ, वकं विउब्विस्सामीति उज्जुयं बिउब्बइ जं जहा इच्छ न त तहा विउब्बई,
से कहमेयं भते ! एवं?
उ. गोवमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा १. माइमिच्छदिट्ठी उबवण्णा य
२. अमाइसम्मदिट्ठी उबवण्णा य
१. तत्थ जे से माइमिच्छदिट्ठी उबवण्णए असुरकुमारे देवे से णं उज्जयं विउव्विस्सामीति वक विउब्बड़ जाय नो तं तहा विउव्यई।
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इसी प्रकार लान्तक नामक देवलोक के विषय में भी समझना चाहिए।
विशेष-वे कुछ अधिक आठ जम्बूद्वीपों के स्थल को भरने की विकुर्वणा शक्ति रखते हैं।
महाशुक्र देवलोक के इन्द्रादि सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीपों (जितने स्थल) को भरने की वैक्रियशक्ति रखते हैं।
सहस्रार देवलोक के इन्द्रादि कुछ अधिक सोलह जम्बूद्वीपो के स्थल को भरने की सामर्थ्य रखते हैं।
इसी प्रकार प्राणत देवलोक के इन्द्रादि के विषय में भी जानना चाहिए।
विशेष-ये सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीपों जितने क्षेत्र को भरने की वैक्रियशक्ति वाले हैं।
इसी प्रकार अच्युत कल्प के इन्द्रादि के विषय में भी जानना चाहिए।
विशेष-कुछ अधिक बत्तीस जम्बूद्वीप क्षेत्र को भरने का चैक्रिय सामर्थ्य रखते हैं।
शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए।
भंते! यह इसी प्रकार है, भंते! यह इसी प्रकार है यों कहकर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार भ्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदन नमस्कार करते हैं और वंदन नमस्कार करके यावत् विचरण करने लगे।
२०. देवों में यथेच्छा विकुर्यणा करने नहीं करने का सामर्थ्यप्र. भंते ! एक ही असुरकुमारावास में दो असुरकुमार, असुरकुमार देव रूप में उत्पन्न हुए,
उनमें से एक असुरकुमार देव यह चाहता है कि "मैं ऋजु रूप की विकुर्वणा करूंगा".
तो वह ऋजु रूप की विकुर्वणा करता है और यदि वह चाहता है कि "मैं वक्र रूप की विकुर्वणा करूँगा” तो वह वक्र रूप की विकुर्वणा करता है। अर्थात् वह जिस रूप की विकुर्वणा करना चाहता है वह उसी रूप की विकुर्वणा करता है। जबकि एक असुरकुमारदेव चाहता है कि "मैं ऋजु रूप की विकुर्वणा करूँगा किन्तु वक्र रूप की विकुर्वणा हो जाती है। और वह यदि चाहता है कि 'मैं चक्र रूप की विकुर्वणा करूँगा' किन्तु ऋजु रूप की विकुर्वणा हो जाती है।
अर्थात् जो जिस रूप की विकुर्वणा करना चाहता है वह उस रूप की विकुर्वणा नहीं कर पाता;
भन्ते ! ऐसा क्यों होता है ?
उ. गौतम असुरकुमारदेव दो प्रकार के कहे गए है, यथा
१. मायी - मिथ्यादृष्टि - उपपन्नक,
२. अमायी - सम्यग्दृष्टि - उपपन्नक ।
१. इनमें से जो मायी - मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक असुरकुमारदेव है, वह ऋजु रूप की विकुर्वणा करना चाहता है किन्तु वक्र रूप की विकुर्वणा हो जाती है यावत् जिस रूप की विकुर्वणा करना चाहता है उस रूप की विकुर्वणा नहीं कर पाता,