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विकुर्वणा अध्ययन
पुहत्तं विउब्वेमाणा मोग्गररूवाणि' वा जाव । भिंडमालरूवाणि वा। ताई संखेज्जाई, णो असंखेज्जाई,
संबद्धाई,णो असंबद्धाई,
सरिसाई,णो असरिसाई विउव्वंति,
विउव्वित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणाअभिहणमाणा-वेयणं उदीरेंति"उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं फरुसं निठुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गंदुरहियासं।" एवं जाव धूमप्पभाए पुढ़वीए।
अनेक रूपों की विकुर्वणा करते हुए अनेक मुद्गर रूपों की यावत् अनेक भिंडमाल रूपों की विकुर्वणा करते हैं। संख्येय रूपों की विकुर्वणा करते हैं किन्तु असंख्येय रूपों की विकुर्वणा नहीं करते हैं। संबद्ध रूपों की विकुर्वणा करते हैं किन्तु असंबद्ध रूपों की विकुर्वणा नहीं करते हैं। सदृश रूपों की विकुर्वणा करते हैं, किन्तु असदृश रूपों की विकुर्वणा नहीं करते हैं। विकुर्वणा करके एक दूसरे के शरीर पर प्रहार करते करते वेदना की उदीरणा करते हैं। वह वेदना उग्र, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, कठोर, निष्ठुर, क्रूर, तीव्र, दुःखद, दुर्दभ असह्य होती है। इसी प्रकार धूमप्रभा पृथ्वी पर्यन्त में भी नैरयिक विकुर्वणा करते हैं। छठी और सातवीं पृथ्वी में नैरयिक गोबर के कीडों के समान बहुत बड़े वज्रमय मुँह वाले रक्तवर्ण कुंथुओं के रूपों की विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करके एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं, उनके शरीर को बार-बार काटते हैं और सौ पर्व वाले इक्षु के कीड़ों की तरह छेदन करते हुए भीतर ही भीतर घुस जाते हैं और उनको उज्जवल यावत् असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं।
छट्ठसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया बहू महंताई लोहियकुंथुरूवाई वइरामयतुंडाई गोमयकीडसमाणाई विउव्वंति, विउव्वित्ता अण्णमण्णस्स कार्य समतुरंगेमाणासमतुरंगेमाणा खायमाणा-खायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा-चालेमाणा अंतो-अंतो अणुप्पविसमाणा-अणुप्पविसमाणा वेदणं उदीरेंति
"उज्जलं जावदुरहियासं।"१ -जीवा. पडि. ३, सु.८९(२) २९. वाउकायस्स विउव्वणा परूवणंप. पभूणं भंते ! वाउकाए एगं महं इत्थिरूवं वा पुरिसरूवं वा
हत्थिरूवं वा जाणरूवंवा एवं जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीय-संदमाणियरूवं वा विउविव्वत्तए?
उ. गोयमा !णो इणठे समझे।
वाउकाए णं विकुब्वमाणे एगं महं पडागासंठियं रूवं विकुव्वइ। प. पभू णं भंते ! वाउकाए एगं महं पडागसंठियं रूव
विउव्वित्ता अणेगाईजोयणाई गमित्तए?
२९. वायुकाय की विकुर्वणा का प्ररूपणप्र. भन्ते ! क्या वायुकाय एक बड़ा स्त्रीरूप या पुरुषरूप, हस्तीरूप
या यानरूप तथा इसी प्रकार युग्य (रिक्शा या तांगा जैसी सवारी), गिल्ली (हाथी की अम्बाडी), थिल्ली (घोड़े का पलान), शिविका (डोली), स्यन्दमानिका (म्यान) इन सबके रूपों की विकुर्वणा
कर सकता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
वायुकाय यदि विकुर्वणा करे तो एक बड़ी पताका के आकार
के रूप की विकुर्वणा कर सकता है। प्र. भन्ते ! क्या वायुकाय एक बड़ी पताका के आकार जैसे रूप
की विकुर्वणा करके अनेक योजन तक गमन करने में
समर्थ है ? उ. हाँ, गौतम ! ऐसा करने में समर्थ है। प्र. भन्ते ! क्या वायुकाय अपनी ऋद्धि से गति करता है या पर
की ऋद्धि से गति करता है? उ. गौतम ! वह अपनी ऋद्धि से गति करता है, पर की ऋद्धि से
गति नहीं करता है। जैसे वायुकाय आत्मऋद्धि से गति करता है, ऐसे ही आत्मकर्म से एवं आत्मप्रयोग से भी गति करता है यह कहना चाहिए।
उ. हता, गोयमा ! पभू। प. से भंते ! किं आयड्ढीए गच्छइ, परिड्ढीए गच्छइ ?
उ. गोयमा ! आयड्ढीए गच्छइ, णो परिड्डीए गच्छइ।
जहा आयड्डीए एवं चेव आयकम्मुणा वि, आयप्पओगेण विभाणियव्यं।
१. विया. स. ५, उ. ६ सु. १४