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भिंदिया भिंदिया व णं पक्खिवेज्जा, कुड़िया कुट्टिया व णं पक्खिवेज्जा, चुष्णिया चुण्णिया व णं पक्खिवेज्जा, तओ पच्छा खियामेव पडिसंघातेज्जा,
नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं या बाबा वा
उप्पाएज्जा,
छविच्छेयं पुण करेइ, एसुहुमं च णं पक्खिवेजा।
-विया. स. १४, उ. ८, सु. २४
२६. महिड्डियदेवस्स संगामे विउव्वण सामत्थं
प. देवे णं भंते! महिढीए जाब महेसवे रूवसहस्स विव्वित्ता पभू अन्णमन्येणं सिद्धं संगामं संगामित्तए ?
उ. हंता, गोयमा ! पभू ।
प. ताओ णं भंते ! बोंदीओ किं एगजीवफुडाओ, अगजीवफुडाओ ?
उ. गोयमा ! एगजीवफुडाओ, जो अणेगजीवफुडाओ।
प. ते णं भंते ! तेसिं बोंदीणं अंतरा किं एगजीवफुडा, अणेगजीवफुडा ?
उ. गोयमा ! एगजीवफुडा, णो अणेगजीवफुडा ।
- विया. स. १८, उ. ७. सु. ३८-४०
२७. देवासुरसंगामे पहरण विउव्वणा
प. अत्थि णं भंते! देवासुरा संगामा, देवासुरा संगामा? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि ।
प. देवासुरे णं भते संगामेसु वट्टमाणेसु किं णं तेसिं देवाणं पहरणरवणत्ताए परिणमइ ?
उ. गोयमा ! जं णं ते देवा तणं वा, कट्ठे वा पतंवा, सक्कर वा, परामुसंति तं णं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमह ।
प. देवासुरेसु णं भंते! संगामेसु वट्टमाणे किं णं तेसि असुरकुमाराणं पहरणरवणताएं परिणमइ ?
उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे ।
असुरकुमाराणं देवाणं निच्च विउब्बिया पहरणरवणा पण्णत्ता । -विया. स. १८, उ. ७, सु. ४२-४४
२८. नेरएहि विव्यिय वाणं परूवणं
प. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया किं एकत्तं पभू विउव्वित्तए ? पुहुत्तं पभू विउब्वित्तए ?
उ. गोयमा ! एगतंपि पभू विउव्वित्तए, पुहुत्तंपि पभू विउब्बित्तए ।
एगत्तं विउव्येमाणा एवं महं मोग्गररूवं वा जाव भिंडमालरूवं वा ।
द्रव्यानुयोग - (१)
या भिन्न-भिन्न करके डालता है,
अथवा कूट-कूट कर डालता है,
या चूर्ण करके डालता है।
तत्पश्चात् शीघ्र ही यह मस्तक के उन सण्डित अवयवों को एकत्रित करता है और पुनः मस्तक बना देता है।
इस प्रक्रिया में उक्त पुरुष के मस्तक का छेदन करते हुए भी वह उस पुरुष को थोड़ी या अधिक पीड़ा नहीं पहुँचाता ।
इस प्रकार मस्तक काटने की सूक्ष्म क्रिया करके वह उसे कमण्डलु में डालता है।
२६. महर्द्धिक देव का संग्राम में विकुर्वणा सामर्थ्य
प्र. भंते ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव, हजार रूपों की विकुर्वणा करके परस्पर एक दूसरे के साथ संग्राम करने में समर्थ है ?
उ. हाँ, गौतम ! समर्थ है।
प्र. भंते! वैक्रियकृत वे शरीर एक ही जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं या अनेक जीवों के साथ सम्बद्ध होते हैं ?
उ. गौतम ! एक ही जीव से सम्बद्ध होते हैं, अनेक जीवों के साथ सम्बद्ध नहीं होते हैं।
प्र. भंते! उन वैक्रियकृत शरीरों के बीच का अन्तराल भाग क्या एक जीव से सम्बद्ध होता है या अनेक जीवों से सम्बद्ध होता है?
उ. गौतम ! उन शरीरों के बीच का अन्तराल भाग एक ही जीव से सम्बद्ध होता है, अनेक जीवों से सम्बद्ध नहीं होता है।
२७. देवासुर संग्राम में शस्त्र विकुर्वणा
प्र. भंते ! क्या देवों और असुरों में देवासुर संग्राम होता है ? उ. हाँ, गौतम होता है।
प्र. भंते! देवों और असुरों में संग्राम छिड़ जाने पर कौन सी वस्तु उन देवों के श्रेष्ठ प्रहरण रूप में परिणत होती है ?
उ. गौतम ! वे देव, जिस तृण, काष्ठ, पत्ता या कंकर आदि को स्पर्श करते हैं, वही वस्तु उन देवों के शस्त्ररत्न के रूप में परिणत हो जाती है।
प्र. भंते! देवों और असुरों में संग्राम छिड़ जाने पर कौनसी वस्तु उन असुरों के श्रेष्ठ प्रहरण के रूप में परिणत होती है ? उ. गौतम ! उनके लिए यह बात शक्य नहीं है।
क्योंकि असुरकुमारदेवों के तो सदा वैक्रियकृत शस्त्ररत्न होते हैं।
२८. नैरयिकों द्वारा विकुर्बित रूपों का प्ररूपण
प्र. भंते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक क्या एक रूपं की विकुर्वणा करते हैं या अनेक रूपों की विकुर्वणा करते हैं ?
उ. गौतम ! एक रूप की भी विकुर्वणा करते हैं और अनेक रूपों की भी विकुर्वणा करते हैं।
एक रूप की विकुर्वणा करते हुए एक महान् मुद्गर की यावत् भिडमाल रूपों की विकुर्वणा करते हैं।