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विकुर्वणा अध्ययन
जण्णं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स, सकम्मस्स, सरागस्स, सवेदस्स, समोहस्स,सलेसस्स, ससरीरस्स, ताओ सरीराओ अविप्पमुक्कस्स एवं पण्णायइ, तं जहा
कालत्ते वा जाव सुक्किलत्ते वा, सुब्भिगंधत्तेवा, दुब्भिगंधत्ते वा, तित्तत्ते वा जाव महुरत्तेवा, कक्खडत्ते वा जाव लुक्खत्ते वा। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"देवेणं महिड्ढिए जाव महेसक्खे पुवामेव रूवी भवित्ता नो पभू अरूविं विउव्वित्ताणं चिट्ठित्तए।"
-विया. स. १७, उ.२, सु.१८ २४. वेमाणिय देवाणं विकुव्वणासत्तीप. सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवा किं एगत्तं पभू
विउवित्तए? पुहत्तं पभू विउव्वित्तए?
तथा प्रकार के सरूपी, सकर्म, सराग, सवेद, समोह, सलेश्य, सशरीर और उस शरीर से अविमुक्त जीव के विषय में ऐसा सम्प्रज्ञात होता है, यथाउस शरीरयुक्त जीव में कालापन यावत् श्वेतपन, सुगन्धित्व या दुर्गन्धित्व, कटुत्व यावत् मधुरत्व, कर्कशत्व यावत् रूक्षत्व होता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"महर्द्धिक यावत् महासुख सम्पन्न देव पहले रूपी होकर बाद में अरूपी की विक्रिया करने में समर्थ नहीं है।"
उ. गोयमा ! एगत्तंपि पभू विउव्वित्तए, पुहत्तंपि पभू विउवित्तए, एगत्तं विउव्वेमाणा एगिंदियरूवं वा जाव पंचेंदियरूवं वा विउव्वंति, पुहत्तं विउव्वेमाणा एगिदियरूवाणि वा जाव पंचेंदियरूवाणि वा,
ताई संखेज्जाई पि असंखेज्जाइंपि सरिसाईं पिअसरिसाई पि संबद्धाई पि असंबद्धाइं पिरूवाइं विउव्वंति,
विउव्वित्ता तओ पच्छा जहिच्छिताई कज्जाई करेंति।
एवं जाव अच्चुओ। प. गेवेज्जादेवा किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए? पुहुत्तं पभू
विउव्वित्तए? उ. गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पुहत्तं पि पभू विउवित्तए, णो चेव णं संपत्तीए विउव्विंसु वा, विउव्वंति वा, विउव्विस्संति वा।
एवं अणुत्तरोववाइया। -जीवा. पडि. ३, सु.२०३ २५. सक्कस्स विउव्वणासत्तीप. पभू णं भंते ! सक्के देविंद देवराया पुरिसस्स सीसं
सपाणिया असिणा छिंदित्ता कमंडलुम्मि पक्खिवित्तए?
२४. वैमानिक देवों की चिकुर्वणा शक्तिप्र. भंते ! सौधर्म और ईशान कल्पों में देव क्या एक रूप की
विकुर्वणा करने में समर्थ है या अनेक रूपों की विकुर्वणा करने
में समर्थ है? उ. गौतम ! एक रूप की विकुर्वणा करने में भी समर्थ है और
अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में भी समर्थ है। एक रूप की विकुर्वणा करते हुए एकेन्द्रिय के रूप की यावत् पंचेन्द्रिय के रूप की विकुर्वणा करता है। अनेक रूपों की विकुर्वणा करता हुआ अनेक एकेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा करता है यावत् अनेक पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा करता है। उनमें संख्येय रूपों की भी और असंख्येय रूपों की भी, सदृश रूपों की भी और असदृश रूपों की भी, सम्बद्ध रूपों की भी और असम्बद्ध रूपों की भी विकुर्वणा करता है। विकुर्वणा करके उसके पश्चात् इच्छित कार्य करता है।
इसी प्रकार अच्युत कल्प पर्यन्त के देव विकुर्वणा करते हैं। प्र. क्या ग्रैवेयक देव एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है या
अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है? उ. गौतम ! एक रूप की विकुर्वणा करने में भी समर्थ है और
अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में भी समर्थ है। किन्तु उन्होंने कभी ऐसी विकुर्वणा नहीं की, नहीं करते हैं और नहीं करेंगे।
इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देव भी हैं। २५. शक्र की विकुर्वणा शक्तिप्र. भंते ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, अपने हाथ में ग्रहण की हुई
तलवार से, किसी पुरुष का मस्तक काटकर कमण्डलु में
डालने में समर्थ है? उ. हाँ, गौतम ! वह समर्थ है। प्र. भंते ! वह किस प्रकार डालता है ? उ. गौतम ! शक्रेन्द्र उस पुरुष के मस्तक को छिन्न-छिन्न करके
डालता है।
उ. हता, गोयमा ! पभू। प. भंते ! कहमिदाणिं पकरेइ? उ. गोयमा ! छिंदिया छिंदिया वणं पक्खिवेज्जा,