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( ४६० - ४६०
'भंते !' त्ति भगवं दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं
वयासीप. जइ णं भंते ! जोइसिंदे जोइसराया एमहिड्ढीए जाव
एवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए सक्के णं भंते ! देविंदे देवराया के महिड्ढीए जाव केवइयं च णं पभू
विउव्वित्तए? उ. गोयमा ! सक्के णं देविंदे देवराया महिड्ढीए जाव
महाणुभागे। से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं, चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं जाव चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिंच जाव विहरइ। एमहिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए। एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियव्वं ।
णवरं-दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे,.
अवसेसंतं चेव। एस णं गोयमा ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते णं वुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुव्विंसु वा, विकुव्वइ वा, विकुव्विस्सइ वा।
द्रव्यानुयोग-(१) 'भंते !' यों संबोधन करके द्वितीय गौतम (गौत्रीय) अग्निभूति अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन नमस्कार किया
और वंदन नमस्कार करके इस प्रकार कहाप्र. भंते ! यदि ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज ऐसी महाऋद्धिवाला है
यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है तो भंते ! देवेन्द्र देवराज शक्र कितनी महाऋद्धि वाला है और कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ? उ. गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र महान ऋद्धिवाला है यावत्
महाप्रभावशाली है वह वहां बत्तीस लाख विमानावासों पर तथा चौरासी हजार सामानिक देवों पर यावत् तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देवों पर एवं दूसरे बहुत से देवों पर आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। शकेन्द्र ऐसी बड़ी ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। उसकी वैक्रिय शक्ति के विषय में चमरेन्द्र की तरह सब कथन करना चाहिए। विशेष-वह अपने विकुर्वित रूपों से दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप जितने स्थल को भरने में समर्थ है। शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए। गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र की यह इस रूप की वैक्रिय शक्ति तो केवल विषय और विषयमात्र कही है परन्तु शक्र ने ऐसी शक्ति के रहते हुए भी विकुर्वणा की नहीं, करता नहीं और
करेगा भी नहीं। प्र. भंते ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र ऐसी महान् ऋद्धि वाला है
यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है तो आप देवानुप्रिय का शिष्य “तिष्यक" नामक अनगार जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था निरन्तर छठ छठ (बेले-बेले) की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूरे आठ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय (साधु-दीक्षा) का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को भावित करते हुए तथा साठ भक्त (टंक) अनशन का छेदन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक काल के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके सौधर्मदेवलोक में गया है। वह वहां अपने विमान में, उपपातसभा में, देवदूष्य से आच्छादित देवशय्या में, अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना से देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। फिर तत्काल उत्पन्न हुआ वह तिष्यक देव पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त हुआ, यथा१. आहार पर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति, ४. आनापान पर्याप्ति
(श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति), ५. भाषा-मनः पर्याप्ति। तदनन्तर जब वह तिष्यकदेव पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त हो चुका तब सामानिक परिषद् के देवों ने दोनों हाथों को जोड़कर एवं दसों अंगुलियों के दसों नखों को इकट्ठे करके मस्तक पर अंजलि करके जय विजय शब्दों से बधाई दी और बधाई देकर इस प्रकार बोले
प. जइ णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव
एवइयं च णं पभू विकुवित्तए एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी तीसए णामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए छळंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाइं अट्ठसंवच्छराई सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता सहिँ भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसी उववायसभाए देवसयणिज्जसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सामाणियदेवत्ताए उववन्ने। तए णं तीसए देवे अहुणोववन्नमेत्ते समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ,तंजहा
१. आहारपज्जतीए, ३. इंदियपज्जत्तीए,
२. सरीरपज्जतीए, ४. आणापाणुपज्जत्तीए,
५. भासा-मणपज्जत्तीए। तए णं तं तीसयं देवं पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गयं समाणं सामाणियपरिसोववन्नया देवा करलयपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धाविति वद्धावित्ता एवं वयासि