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१५. विकुव्वणा-अज्झयणं
( द्रव्यानुयोग-(१) १५. विकुर्वणा-अध्ययन
सूत्र
१.विकुर्वणा के विविध प्रकार
बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना होने वाली विक्रिया एक है। विक्रिया तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. बाह्य पुद्गलों को ग्रहण कर की जाने वाली, २. बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना की जाने वाली, ३. बाह्य पुद्गलों को ग्रहण और अग्रहण करके की जाने वाली।
१. विकुब्वणाया विविहपगारा
एगा जीवाणं अपरियाइत्ता विकुव्वणा। -ठाणं अ. १, सु. १२ तिविहा विकुब्वणा पण्णत्ता,तं जहा१. बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता एगा विकुव्वणा, २. बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विकुब्बणा, ३. बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाइत्ता वि एगा
विकुव्वणा। तिविहा विकुव्वणा पण्णत्ता,तं जहा१. अब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता एगा विकुव्वणा, २. अभंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विकुव्वणा, ३. अब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाइत्ता वि एगा
विकुब्वणा। तिविहा विकुब्वणा पण्णत्ता,तं जहा१. बाहिरब्भतरए पोग्गले परियाइत्ता एगा विकुव्वणा,
२. बाहिरब्भंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विकुव्वणा,
३. बाहिरब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाइत्ता वि
एगा विकुव्वणा। -ठाणं अ. ३, उ. १, सु. १२८ २. अरूवी जीवेण विउव्वणाऽसामत्थ परूवणंप. सच्चेव णं भंते ! से जीवे पुव्वामेव अरूवी भवित्ता पभू
रूविं विउव्वित्ता णं चिट्ठित्तए? उ. गोयमा ! णो इणठे समझे। प. सेकेणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"सच्चेवणं से जीवे पुवामेव अरूवीभवित्ता-नो पभू रूविं विउव्वित्ताणं चिट्ठित्तए?" उ. गोयमा !अहमेयं जाणामि,अहमेयं पासामि,
अहमेयं बुज्झामि, अहमेयं अभिसमण्णागच्छामि, मए एयं नायं,मए एयं दिळं, मए एयं बुद्धं,मए एयं अभिसमण्णागयं
विक्रिया तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. आन्तरिक पुद्गलों को ग्रहण कर की जाने वाली, २. आन्तरिक पुद्गलों को ग्रहण किए बिना की जाने वाली, ३. आन्तरिक पुद्गलों को ग्रहण और अग्रहण करके की जाने
वाली। विक्रिया तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण कर
की जाने वाली, २. बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण किए
बिना की जाने वाली, ३. बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण और
अग्रहण करके की जाने वाली। २. अरूपी जीव द्वारा विकुर्वणा के असामर्थ्य का प्ररूपणप्र. भन्ते ! क्या वही जीव पहले अरूपी होकर, फिर रूपी आकार
की विकुर्वणा करके रहने में समर्थ हैं ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि
'वह जीव पहले अरूपी होकर, फिर रूपी आकार की
विकुर्वणा करके रहने में समर्थ नहीं है ?' उ. गौतम ! मैं यह जानता हूँ, मैं यह देखता हूँ।
मैं यह निश्चित जानता हूँ, मैं यह सर्वथा जानता हूँ। मैंने यह जाना है, मैंने यह देखा है, मैंने यह निश्चित समझ लिया है और मैंने यह पूरी तरह से जाना है कि तथा प्रकार के अरूपी, अकर्म, अराग, अवेद, अमोह, अलेश्य, अशरीर
और उस शरीर से मुक्त जीव के विषय में ऐसा ज्ञात नहीं होता है, यथाकालापन यावत् श्वेतपन, सुगन्धित्व या दुर्गन्धित्व, कटुत्व यावत् मधुरत्व,
जण्णं तहागयस्स जीवस्स अरूविस्स, अकम्मस्स, अरागस्स, अवेदस्स, अमोहस्स, अलेसस्स,असरीरस्स, ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स नो एवं पण्णायइ,तं जहा
कालत्ते वा जाव सुक्किलत्तेवा, सुब्भिगंधत्ते वा, दुब्भिगंधत्ते वा, तित्तत्ते वा जाव महुरत्ते वा,