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विकुर्वणा अध्ययन
कक्खडे वा जाव लुक्खत्ते वा। से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"सच्चेवणं से जीवे पुवामेव अरूवी भवित्ता नो पभू रूविं
विउव्वित्ताणं चिट्ठित्तए।" -विया स. १७, उ. २, सु. १९ ३. भावियऽप्पणो अणगारस्स विउव्वणसत्ती परूवणं
रायगिहे जाव एवं वयासीप. से जहानामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा,
एवामेव अणगारे वि भावियप्पा केयाघडिया किच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? उ. गोयमा !हता उप्पएज्जा। प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू
केयाघडियाकिच्चहत्थगयाई रूवाई विउवित्तए? उ. गोयमा ! से जहानामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे
गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया,
कर्कशत्व यावत् रूक्षत्व है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'वह जीव पहले अरूपी होकर, फिर रूपी आकार की
विकुर्वणा करके रहने में समर्थ नहीं है।" भावितात्मा अनगार की विकुर्वणा शक्ति का प्ररूपणराजगृह नगर में यावत् इस प्रकार पूछाप्र. जैसे कोई पुरुष रस्सी से बंधी हुई घटिका लेकर चलता है,
क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी रस्सी से बंधी हुई
घटिकाएं स्वयं हाथ में लेकर उंचे आकाश में उड़ सकता है ? उ. हां, गौतम ! वह उड़ सकता है। प्र. भन्ते ! भावितात्मा अणगार गले पर रस्सी बंधी हुई घटिकाएं
हाथ में लेकर चलने वाले कितने रूप बना सकता है? उ. गौतम ! जिस प्रकार एक युवती अपने हाथ से एक युवान
पुरुष के हाथ को पकड़े अथवा पहिए की नाभि-आरे से व्याप्त होती है। इसी प्रकार हे गौतम ! भावितात्मा अनगार भी वैक्रिय समुद्घात से समवहत होकर गले पर बंधी हुई घटिकाओं वाले रूपों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को व्याप्त यावत् ठसाठस भर सकता है।
एवामेव अणगारे वि भावियपा वेउब्वियसमुग्याएणं समोहण्णइ जाव-पभू णं गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं केयाघडियकिच्चहत्थगएई रूवेई आइण्णं जाव अवगाढावगाढं करेत्तए। एस णं गोयमा ! अणगारस्स भावियप्पो अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विउव्विंसु वा, विउव्वंति वा, विउव्विस्संति वा।
प. से जहानामए केइ पुरिसे हिरण्णपेलं गहाय गच्छेज्जा,
एवामेव अणगारे वि भावियप्पा हिरण्णपेल
हत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? उ. हंता उप्पएज्जा,
एवं सुवण्णपेलं रयणपेलं, वइरपेलं, वत्थपेलं, आभरणपेलं।
हे गौतम ! भावितात्मा अनगार का यह विषय और विषय मात्र कहा गया है। उसने कभी इतने रूपों की विकुर्वणा की नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं। xx
xx प्र. जैसे कोई पुरुष हिरण्य की मंजूषा लेकर चलता है, वैसे ही
क्या भावितात्मा अनगार भी हिरण्य-मंजूषा हाथ में लेकर स्वयं
ऊंचे आकाश में उड़ सकता है? उ. हां उड़ सकता है।
इसी प्रकार स्वर्ण-मंजूषा, रत्नमंजूषा, वज्र-मंजूषा, वस्त्रमंजूषा और आभरण-मंजूषा लेकर चलने वाले पुरुष का कथन है।
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xx एवं वियलकडं,सुंबकडं,चम्मवडं,कंबलकडं।
इसी प्रकार विदलकट (बांस की चटाई), शुम्बकट (घास की चटाई), चर्मकट एवं कम्बलकट इत्यादि का कथन है।
एवं अयभारं, तंबभारं, तउयभारं, सीसगभारं, हिरण्णभारं.सुवण्णभारं, वइरभारं।
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प. से जहानामए वग्गुली सिया, दो वि पाए
उल्लंबिया-उल्लंबिया उड्ढंपादा अहोसिरा चिठेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा वगुली किच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा?
इसी प्रकार लोहे का भार, ताम्बे का भार, कलई का भार, शीशे का भार, हिरण्य का भार,सोने का भार और वज्र के भार का कथन है।
xx प्र. जैसे कोई वग्गुली पक्षी अपने दोनों पैर लटका-लटका कर,
पैरों को ऊपर और सिर को नीचा किए रहती है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी उक्त वग्गुली (चमगादड़) की तरह अपने रूप की विकुर्वणा करके स्वयं ऊंचे आकाश में उड़ सकता है?