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शरीर अध्ययन
३९५ शरीर की उत्पत्ति एवं रचना दो कारणों से होती है-राग से और द्वेष से। राग और द्वेष ही संसार में भटकने के प्रमुख कारण हैं। इन दो कारणों को क्रोध, मान, माया एवं लोभ के रूप में चार प्रकार का भी कहा गया है। जीव औदारिक, वैक्रिय एवं आहारक शरीर के रूप में स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, किन्तु तैजस और कार्मण शरीर के रूप में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता है। जीव इन शरीरों के रूप में द्रव्यों का ग्रहण द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव सभी प्रकारों से करता है।
चार गतियों के जीवों में पाए जाने वाले शरीरों को बाह्य एवं आभ्यन्तर भेदों में भी विभक्त किया जाता है। कार्मण शरीर को आभ्यन्तर शरीर तथा औदारिक एवं वैक्रिय शरीरों को बाह्य शरीर माना गया है। इस दृष्टि से नैरयिकों एवं देवों में कार्मण नामक आभ्यन्तर शरीर तथा वैक्रिय नामक बाह्य शरीर पाया जाता है, शेष सब जीवों में भी आभ्यन्तर शरीर तो कार्मणरूप ही होता है किन्तु बाह्य शरीर औदारिक उपलब्ध होता है। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों तथा मनुष्यों में जो औदारिक शरीर होता है उसमें अस्थि, मांस, शोणित, स्नायु आदि उपलब्ध होते हैं। ___अपेक्षा विशेष से औदारिक आदि पाँच शरीरों को पुनः दो प्रकार का निरूपित किया गया है-१. बद्ध और २. मुक्त । जो शरीर जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए हैं उन्हें बद्ध शरीर कहते हैं तथा जो शरीर जीव के द्वारा व्यक्त हैं उन्हें मुक्त शरीर कहते हैं। जैसे नैरयिकों में बद्ध औदारिक शरीर नहीं होता किन्तु मुक्त औदारिक शरीर होता है क्योंकि वे औदारिक शरीर को छोड़ देते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में बद्ध और मुक्त शरीर की संख्या का द्रव्य, क्षेत्र, कालादि की दृष्टि से निरूपण किए जाने के साथ चौबीस दण्डकों में इन भेदों का निरूपण किया गया है।
चौबीस दण्डकों में जो शरीर पाए जाते हैं, वे शरीर पाँच वर्ण एवं पाँच रसों से युक्त होते हैं। औदारिक शरीर से लेकर कार्मण शरीर तक समस्त शरीर पाँच वर्ण (कृष्ण, नील, पीत, रक्त, श्वेत) और पाँच रस (तिक्त, कटु, कषैला, अम्ल, मधुर) युक्त माने गए हैं। वर्णादि से सम्पन्न होने के कारण ये शरीर पौद्गलिक होते हैं।
कायस्थिति की दृष्टि से विचार करें तो औदारिकशरीरी जीव औदारिक शरीर के रूप में जघन्य दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहण और उत्कृष्ट असंख्यात काल यावत् अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र के प्रदेशों प्रमाण रहता है। वैक्रियशरीरी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक वैक्रिय शरीरी के रूप में रहता है। आहारक शरीरी आहारक शरीरी के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। तैजस और कार्मण शरीरी जीव दो प्रकार के हैं-१. अनादि अपर्यवसित और २. अनादि सपर्यवसित। जो जीव सिद्ध गति को प्राप्त हो जाते हैं, उनकी अपेक्षा से तैजस् एवं कार्मण शरीर सपर्यवसित होते हैं, शेष जीवों की अपेक्षा से ये दोनों शरीर अनादि एवं अपर्यवसित होते हैं।
एक बार एक शरीर प्राप्त होने के बाद पुनः वैसा ही शरीर प्राप्त होने के मध्य व्यतीत काल को उस शरीर का अंतरकाल कहा जाता है। अन्तरकाल की दृष्टि से भी इस अध्ययन में विचार हुआ है। औदारिक शरीर का जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम होता है। जघन्य काल पृथ्वीकाय आदि जीवों की अपेक्षा से है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल नरक एवं देवगति के मध्य व्यतीत काल की अपेक्षा से है। वैक्रिय शरीर का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर काल वनस्पतिकाल है। जघन्य अन्तरकाल का प्रतिपादन पर्याप्त बादर वायकायिक जीवों की अपेक्षा से है तथा नैरयिक. देव या पनः वायकाय में आने के मध्य उत्कृष्ट वनस्पतिकाल बीत सकता है। आहारक शरीर का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल होता है। तैजस एवं कार्मण शरीर या तो अनादि अनन्त होते हैं या अनादि सान्त, किन्तु इन दोनों ही विकल्पों में अन्तरकाल नहीं होता। यदि ये शरीर जीव के साथ हैं तो बिना अन्तरकाल के हैं तथा सिद्ध अवस्था में जीव से जब इनका विच्छेद होता है तो सदैव के लिए हो जाता है।
अल्पबहुत्व की दृष्टि से सबसे अल्प आहारक शरीर वाले जीव हैं। उनसे वैक्रिय शरीरी असंख्यातगुणे हैं, उनसे औदारिक शरीरी असंख्यातगुणे हैं, उनसे अशरीरी (सिद्ध) अनन्तगुणे हैं और उनसे तैजस् कार्मण शरीर वाले जीव अनन्तगुणे हैं और ये दोनों शरीर परस्पर तुल्य हैं। द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य प्रदेश की अपेक्षा से भी अल्पबहुत्व का निरूपण हुआ है।
अवगाहना चार प्रकार की होती है-द्रव्यावगाहना, क्षेत्रावगाहना, कालावगाहना और भावावगाहना। अवगाहना का निरूपण जीवों की अपेक्षा से नौ प्रकार का भी है, उनमें पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय के पाँच भेदों तथा द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के चार भेदों की गणना होती है। औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्टतः कुछ अधिक हजार योजन मानी गई है। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीवों की अवगाहना का निरूपण करने के साथ इस अध्ययन में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक
और मनुष्यों की औदारिक शरीर अवगाहना का विस्तार से निरूपण है। वैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक एक लाख योजन की कही गई है। नैरयिक एवं देव जीवों की अवगाहना दो प्रकार की मानी जाती है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रिय जीवों तथा मनुष्यों के वैक्रिय शरीर की अवगाहना का भी प्रतिपादन है। आहारक शरीर की अवगाहना जघन्य देशोन एक हाथ की तथा उत्कृष्ट प्रतिपूर्ण एक हाथ की निरुपित है।
जब जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है तब उसमें तैजस् एवं कार्मण शरीर की अवगाहना का निरूपण किया जाता है। सामान्य से इन दोनों शरीरों की अवगाहना विष्कम्भ एवं बाहुल्य की अपेक्षा शरीर प्रमाण मात्र होती है, लम्बाई की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट लोकान्त से लोकान्त तक होती है। सभी जीवों में इन शरीरों की पृथक्-पृथक् अवगाहना का भी इस प्रसंग में विस्तार से निरुपण है।
चौबीस दण्डकों में अवगाहना स्थान असंख्यात माने गए हैं। समस्त शरीरों की अवगाहना के अल्पबहुत्व का विचार करने पर ज्ञात होता है किजघन्य अवगाहना की अपेक्षा सबसे अल्प अवगाहना औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना है तथा सबसे अधिक आहारक शरीर की अवगाहना है। उत्कृष्ट अवगाहना की अपेक्षा सबसे अल्प आहारक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना है तथा वैक्रियशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना सबसे अधिक है।
किस शरीर में किस प्रकार का संस्थान कब पाया जाता है इसका भी प्रस्तुत अध्ययन में विस्तृत निरूपण है। औदारिक, वैक्रिय, तैजस् और कार्मण शरीर नाना प्रकार के संस्थान वाले हैं, जबकि आहारक शरीर में मात्र समचतुरन संस्थान पाया जाता है।