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हे गौतम ! क्या उस बकरियों के बाड़े का कोई भी परमाणु पुद्गल जितना प्रदेश ऐसा रह सकता है जो उन बकरियों के मल, मूत्र, श्लेष्म (कफ) नाक के मैल (लीट) वमन, पित्त, शुक्र, रूधिर, चर्म, रोम, सींग, खुर और नखों से अस्पृष्ट न रहा हो? (गौतम ! भंते !) यह अर्थ समर्थ नहीं हैं।
जीव अध्ययन
अत्थि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केइ परमाणुपोग्गलमेते वि पएसे जेणं तासिं अयाणं उच्चारण वा, पासवणेण वा,खेलेण वा, सिंघाणएण वा, वंतेण वा, पित्तेण वा, पूएण वा, सुक्केण वा, सोणिएण वा, चम्मेहि वा, रोमेहि वा, सिंगेहि वा, खुरेहि वा, नहेहिं वा अणोक्क्कंतपुब्वे भवइ ? णो इणढे समठे, होज्जा वि णं' गोयमा ! तस्स अयावयस्स केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जे णं तासिं अयाणं उच्चारण वा जाव नहेहिं वा अणोक्कंतपुव्वे, नो चेव णं एयंसि एमहालयंसि लोगंसि लोगस्स य सासयभाव संसारस्स य अणादिभावं जीवस्स य निच्चभावं कम्मबहुत्तं जम्मण मरणाबाहुल्लं च पडुच्च नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे नजाए वा, न मए वा वि। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'एयसि णं एमहालयंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए
वा, न मए वा वि।' -विया. स. १२, उ.७, सु.३ ५. संसार परिब्भमणस्स णवठाणाणि
जीवाणं णवहिं ठाणेहिं संसारवत्तिंसु वा, वत्तंति वा, वत्तिस्संति वा,तं जहा१. पुढविकाइयत्ताए, २. आउकाइयत्ताए, ३. तेउकाइयत्ताए, ४. वाउकाइयत्ताए, ५. वणस्सइकाइयत्ताए, ६. बेइंदियत्ताए, ७. तेइंदियत्ताए, ८. चउरिंदियत्ताए, ९. पंचिंदियत्ताए,
-ठाणं अ.९सु.६६६ ६. छठाणेसु जीवाणं असामत्थ परूवणं
छहिं ठाणेहिं सव्वजीवाणं णत्थि इड्ढी इवा, जुइ इ वा, जसे इ वा, बले इवा, वीरिए इवा,पुरिसक्कार परक्कमे इवा,तं जहा१. जीवं वा अजीवं करणयाए, २. अजीवंवा जीवं करणयाए, ३. एगसमएणं वा दो भासाओ भासित्तए, ४. सयं कडं वा कम्मं वेदेमि वा, मा वा वेदेमि,
(भगवान् ने कहा-) हे गौतम ! कदाचित् उस बाड़े में कोई एक परमाणु पुद् गल जितना प्रदेश ऐसा भी रह सकता है जो उन बकरियों के मल-मूत्र यावत् नखों से अस्पृष्ट रहा हो। किन्तु इतने बड़े इस लोक में लोक के शाश्वतभाव की दृष्टि से संसार के अनादि होने के कारण जीव की नित्यता, कर्म-बहुलता तथा जन्म मरण की बहुलता की अपेक्षा से कोई परमाणु पुद्गल जितना प्रदेश भी ऐसा नहीं है जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो। इस कारण से मौतम ! ऐसा कहा जाता है कि“इतने बड़े लोक में परमाणु पुद्गल जितना कोई भी आकाश प्रदेश ऐसा नहीं है, जहां इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो।"
५. संसार परिभ्रमण के नौ स्थान
जीवों ने नौ स्थानों से संसार में परिभ्रमण किया था, करते हैं और करेंगे, यथा१. पृथ्वीकाय के रूप में, .२. अप्काय के रूप में, ३. तेजस्काय के रूप में, ४. वायुकाय के रूप में, ५. वनस्पतिकाय के रूप में, ६. द्वीन्द्रिय के रूप में, ७. त्रीन्द्रिय के रूप में, ८. चतुरिन्द्रिय के रूप में,
९. पञ्चेन्द्रिय के रूप में। ६. छ स्थानों में जीवों के असामर्थ्य का प्ररूपण. सब जीवों में इन छह कार्यों को करने की ऋद्धि, द्युति, यश, बल,
वीर्य पुरुषकार पराक्रम नहीं होता, यथा१. जीव को अजीव में परिणत करने की, २. अजीव को जीव में परिणत करने की, ३. एक समय में दो भाषा बोलने की, ४. अपने द्वारा किए हुए कर्मों का वेदन करूं या नहीं करूं इस
भाव की, ५. परमाणु पुद्गल का छेदन भेदन करने और उसे अग्निकाय में
जलाने की. ६. लोकान्त से बाहर जाने की। ७. जीव द्रव्यों के अनन्तत्व का प्ररूपण
प्र. भंते ! क्या जीव द्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? उ. गौतम ! जीवद्रव्य संख्यात नहीं हैं, असंख्यात नहीं है, किन्तु
अनन्त हैं।
५. परमाणुपोग्गलं वा छिंदित्तए वा, भिंदित्तए वा,
अगणिकाएण वा समोदहित्तए, ६. बहिया वा लोगंता गमणयाए। -ठाणं. अ.६, सु. ४७९ ७. जीवदव्वाणं अणंतत्त परूवणं
प. जीवदव्वा णं भंते ! किं संखेज्जा,असंखेज्जा,अणंता? उ. गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता।