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आहार अध्ययन
जस्सजं अत्थि तस्स तं पुच्छिज्जंति,
जं णत्थि तं ण पुच्छिज्जति जाव भासा-मणपज्जत्तीए अपज्जत्तएसुणेरइय-देव-मणुएसु य छब्भंगा।
सेसेसु तियभंगो।
-पण्ण. प.२८, उ.२, सु. १८६५-१९०७ २७. वणस्सईकाइयाणं उप्पत्ति वुड्ढि आहार परूवणं
सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु आहारपरिण्णा णामऽज्झयणे तस्स णं अयमढे
इह खलु पाईणं वा जाव दाहिणं वा सव्वाओ सव्वावंति लोगंसि चत्तारि बीयकाया एवमाहिज्जति,तंजहा
१.अग्गबीया २. मूलबीया ३.पोरबीया,४.खंधबीया। १. तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इह गइया सत्ता
पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा।
तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा कम्मोवगा कम्मणियाणे णं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु रुक्वत्ताए विउद्देति।
- ३८३ ) जिस दण्डक में जो पद सम्भव हो, उसी की पृच्छा करनी चाहिए। जो पद जिसमें सम्भव न हो उसकी पृच्छा नहीं करनी चाहिए यावत् भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग होते हैं। शेष (समुच्चय जीवों और पंचेंद्रिय तिर्यञ्चों) में तीन भंगों का
कथन करना चाहिए। २७. वनस्पतिकायिकों की उत्पत्ति वृद्धि आहार का प्ररूपण
हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन भगवान् ने इस प्रकार कहा हैआहारपरिज्ञा नामक एक अध्ययन है, जिसका अर्थ (भाव) यह हैइस समग्र लोक में पूर्व यावत् दक्षिण दिशाओं (तथा ऊर्ध्व आदि विदिशाओं) में सर्वत्र चार प्रकार के बीजकाय वाले जीव होते हैं, यथा :१. अग्रबीज, २. मूलबीज, ३. पर्वबीज, ४. स्कन्ध बीज १. उन बीजकायिक जीवों में जो जिस प्रकार के बीज से, जिस-जिस अवकाश (उत्पत्ति स्थान) आदि से उत्पन्न होने की योग्यता रखते हैं, वे उस उस बीज से तथा उस-उस अवकाश में उत्पन्न होते हैं। इस दृष्टि से कई बीजकायिक जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं, उसी पर स्थित रहते हैं और उसी पर उनका विकास होता है। इसलिए पृथ्वीयोनिक पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले और उसी पर स्थित रहने व बढ़ने वाले वे जीव कर्म के वशीभूत और कर्म के निदान से आकर्षित होकर वहीं वृद्धिंगत होते हुए नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वियों पर वृक्ष रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वियों के रस का आहार करते हैं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति शरीर का आहार करते हैं तथा नाना प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त करते हैं। वे पूर्व में विध्वस्त किये हुए, पूर्व में आहार किये हुए, त्वचा से आहार किये हुए, विपरिणत तथा आत्मसात् किये हुए उस शरीर का सर्वात्मना आहार करते हैं। उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों के दूसरे (मूल, शाखा, प्रशाखा, पत्र, फलादि के रूप में बने हुए) शरीर भी नाना प्रकार के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थानों से संस्थित एवं नाना प्रकार के शारीरिक पुद्गलों से विकुर्वित होकर बनते हैं, वे जीव कर्मों
के उदय के अनुसार उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। २. इसके बाद यह वर्णन है कि कई सत्व (वनस्पतिकायिक जीव)
वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, अतएव वे वृक्षयोनिक होते हैं, वृक्ष में स्थित रहकर वहीं वृद्धि को प्राप्त होते हैं, वृक्षयोनिक वृक्ष में उत्पन्न उसी में स्थित और वृद्धि को प्राप्त करने वाले कर्मों के उदय के कारण जीव कर्म से आकृष्ट होकर पृथ्वीयोनिक वृक्षों में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों से उनके रस का आहार करते हैं,
ते जीवा तासिं णाणाविहजोणियाणं पुढविणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं, आउसरीरं, तेउसरीरं, वाउसरीरं, वणस्सइसरीरं, नाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति, परिविद्धत्थं तं सरीरगं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारुविकडं संतं सब्बप्पणयाए आहारं आहारैति।
अवरे वि य णं तेसिं पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा नाणावण्णा नाणागंधा नाणारसा नाणाफासा नाणासंठाणसंठिया नाणाविहसरीरपोग्गलविउव्वित्ता ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंतीतिमक्खायं।
२. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया
रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तब्बकम्मा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणिएहिं रुक्खेहिं रुक्खत्ताए विउटैति।
तेजीवा तेसिं पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति,
१. विया.स.६,उ.२,सु.१