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( ३८६ - ३८६
एवं हरियाण वि चत्तारि आलावगा (४) अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवक्कमा नाणाविहजोणियासु पुढवीसु आयत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कुहणत्ताए कंदुकत्ताए उव्वेहलियत्ताए निव्वेहलियत्ताए सछत्ताए छत्तगत्ताए वासाणियत्ताए कूरत्ताए विउटैति। ते जीवा तेसिं नाणाविहजोणियाण पुढवीणं सिणेहमाहारेंति। ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सव्वप्पणाए आहारं आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं पुढविजोणियाणं आयाणं जाव कुराणं नाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं। एक्को चेव आलावगो सेसा तिण्णि नत्यि।
१. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता उदगजोणिया
उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु रुक्खत्ताए विउट्टति, ते जीवा तेसिंणाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइसरीरं जाव सव्वप्पणाए आहारं आहारेंति। अवरे वि य णं उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं। जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि गमा (४)
द्रव्यानुयोग-(१)) इसी प्रकार हरितरूप में उत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों के भी चार आलापक कहने चाहिए। इसके बाद यह वर्णन है कि इस वनस्पतिकाय में कई जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं यावत कर्मनिदान से मरण करके नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वियों में आय, वाय, काय, कूहण, कन्दूक, उवेहणी, निर्वेहणी, सछत्रक, छत्रक, वासानी एवं कूर नामक वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन नानाविध योनियों वाली पृथ्वियों के रस का आहार करते हैं तथा वे जीव पथ्वीकाय के जीवों के शरीरों का यावत वनस्पतिकाय के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। उन पृथ्वीयोनिक आय वनस्पति से कूर वनस्पति तक के जीवों के शरीर नाना प्रकार के वर्णादि से बने हुए होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है। इन जीवों का एक ही आलापक होता है, शेष तीन आलापक
नहीं होते। १. इसके बाद यह वर्णन है कि-इन वनस्पतिकाय में कई
उदकयोनिक (जो जल में ही उत्पन्न होने वाली) वनस्पतियाँ हैं जो जल में उत्पन्न होती हैं यावत् अपने कर्म निदान से मरण करके नाना प्रकार की योनियाँ वाले जल में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव नाना प्रकार के जाति वाले जलों के रस का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी के शरीरों का यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं तथा उन जलयोनिक वृक्षों के शरीर नाना वर्णादि से बने हुए होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थकरदेव ने कहा है। जैसे पृथ्वीयोनिक वृक्ष के चार भेद कहे हैं वैसे ही इन जलयोनिक वृक्ष के भी चार चार आलापक कहने चाहिए। अध्यारुह के भी वैसे ही चार-चार आलापक कहने चाहिए। तृण औषधिक और हरित प्रत्येक के चार चार आलापक
कहने चाहिए। २. इसके बाद यह वर्णन है कि-इस वनस्पतिकाय में कई जीव
उदकयोनिक होते हैं, जो जल में उत्पन्न होते हैं यावत् अपने कर्म निदान से मरण करके अनेक प्रकार की योनि के उदकों में उदक, अवक, पनक (काई), शैवाल, कलम्बुक, हड, कसेरु, कच्छ,भाणितक, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस, कमलमूल, कमल नाल, पुष्कर और पुष्पकरस्तिबुक के रूप में उत्पन्न होते हैं, वे जीव नाना जाति वाले जलों के रस का आहार करते हैं, तथा पृथ्वीकाय शरीरों का यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। उन जलयोनिक वनस्पतियों के उदक से पुष्कर-स्तिबुक आदि के शरीर नाना वर्णादि से बने हुए होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थकर देव ने कहा है।
अज्झोरुहाण वि तहेव (४) तणाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियब्वा एक्केक्के। अहावर पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेवालत्ताए कलंबुयत्ताए हढत्ताए कसेरुयत्ताए कच्छरुयताए भाणियत्ताए उप्पलत्ताए पउमत्ताए कुमुदत्ताए नलिणत्ताए सुभगत्ताए सोगंधियत्ताए पोंडरियत्ताए महापोंडिरयित्ताए सयपत्तत्ताए सहस्सपत्तत्ताए कल्हारत्ताए कोंकणत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए भिसत्ताए भिसमुणालत्ताए पुक्खलत्ताए पुक्खलथिभगत्ताए विउटैंति, ते जीवा तेसिं नाणाविह जोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सब्बप्पणाए आहार आहारेंति। अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं जाव पुक्खलत्थिभगाणं सरीरा नाणावण्णा जाव भवंतीतिमक्खायं।
एक्को चेव आलावगो (१) १. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता, तेहिं चेव
पुढविजोणिएहिं रुक्खेहिं रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहिं,
इसमें केवल एक ही आलापक होता है। १. इसके बाद यह वर्णन है कि-वनस्पतिकायिक में कई जीव
पृथ्वीयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक मूल से
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