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३८७ ] बीजपर्यन्त अवयवों में, (३) वृक्षयोनिक अध्यारुह वृक्षों में, अध्यारुयोनिक अध्यारुहों में, अध्यारुहयोनिक मूल से बीजपर्यन्त अवयवों में,(३) पृथ्वीयोनिक तृणों में,तृणयोनिक तृणों में, तृणयोनिकों के मूल से बीजपर्यन्त अवयवों में (३) तथा इसी प्रकार औषधिक और हरितों के सम्बन्ध में तीन-तीन आलापक कहने चाहिए।
आहार अध्ययन रुक्खजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं (३) रुक्खजोणिएहिं, अज्झोरुहेहि, अज्झोरुहजोणिएहिं अज्झोरुहेहि, अज्झोरुहजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं (३) पुढविजोणिएहिं तणेहिं, तणजोणिएहिं तणेहि, तणजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं (३) एवं ओसहीहिं तिण्णि आलावगा (३) एवं हरिएहिं वि तिण्णि आलावगा (३) पुढविजोणिएहिं आएहिं काएहिं जाव कूरेहिं (२) उदगजोणिएहिं रुक्खेहिं, रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहि, रुक्खजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं (३) एवं अज्झोरुहेहिं वि तिण्णि आलावगा (३) तणेहिं वि तिण्णि आलावगा (३) ओसहीहिं वि तिण्णि आलावगा (३) हरिएहिं वि तिण्णि आलावगा (३) उदगजोणिएहिं उदएहिं अवएहिं
जाव पुक्खलत्थिभएहिं तसपाणत्ताए विउटति। २. ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं उदगजोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्झोरुहजोणियाणं तणजोणियाणं
ओसहिजोणियाणं हरियजोणियाणं रुक्खाणं अज्झोरुहाणं तणाणं ओसहीणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं आयाणं कायाणं जाव कुराणं उदगाणं अवगाणं जाव पुक्खलत्थिभगाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सव्वप्पणाए आहारं आहारेंति । अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झोरुहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहिजोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं जाव बीयजोणियाणं आयजोणियाणं कायजोणियाणं जाव कूरजोणियाणं अवगजोणियाणं जाव पुक्खलस्थिभग जोणियाणं तसपाणाणं सरीराणाणावण्णा जाव भवंतीति मक्खाय।
-सूय.सु.२,अ.३.सु.७२२७३१ २८. मणुस्साणं उप्पत्ति वुढि आहार परूवणं
अहावरं पुरक्खायं-णाणाविहाणं मणुस्साणं,तंजहा
पृथ्वीयोनिक आय, काय से कूर तक के वनस्पतिकायिक अवयवों में, उदकयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक वृक्षों में तथा वृक्षयोनिक मूल से बीज तक के अवयवों में और इसी प्रकार अध्यारुहों, तृणों, औषधियों और हरितों में भी तीन-तीन आलापक कहने चाहिए। उनमें तथा कई उदकयोनिक उदक अवक से पुष्करस्तिबुक पर्यंत में त्रस प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं। २. वे जीव पृथ्वीयोनिक, जलयोनिक वृक्षयोनिक
अध्यारुहयोनिक, तृणयोनिक, औषधियोनिक हरितयोनिक, वृक्षों के तथा अध्यारूह वृक्षों, तृणों, औषधियों, हरितों के मूल से बीजपर्यन्त आय काय से कूर वनस्पति तक के एवं उदक अवक से पुष्करस्तिबुक वनस्पति पर्यन्त के रस का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं, तथा दूसरे भी वृक्षयोनिक, अध्यारूहयोनिक, तृणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक, मूलयोनिक, कन्दयोनिक यावत् बीजयोनिक तथा आय, काय, यावत् कूरयोनिक, उदकयोनिक, अवकयोनिक यावत् पुष्कर स्तिबिकयोनिक त्रसजीवों के शरीर नाना वर्णादि से बने हुए होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थकर देव ने कहा
कम्मभूमगाणं, अकम्मभूमगाणं, अंतर-दीवगाणं, आरियाणं, मिलक्खूणं, तेसिं च णं अहोबीएणं अहावकासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए एत्थ णं मेहुणवत्तिए नाम संयोगे समुप्पज्जइ, ते दुहवो वि सिणेहिं संचिणंति, संचिणित्ता तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए विउटति, ते जीवा माउओयं पिउसुक्कं तं तदुभयं संसट्ठ कलुस किविसं तप्पढमयाए आहारमाहारेंति, तओ पच्छा जं से माता णाणाविहाओ रसविगईओ आहारमाहारेइ तओ एगदेसेणं ओयमाहारेंति, अणुपुब्वेणं वुड्ढा पलिपागमणुचिन्ना तओ कायाओ अभिनिब्बट्टमाणा इत्थि वेगता जणयंति, पुरिसं वेगता जणयंति, णपुंसगं वेगता जणयंति।
२८, मनुष्यों की उत्पत्ति वृद्धि आहार का प्ररूपण
इसके पश्चात् अनेक प्रकार के मनुष्यों का स्वरूप बताया है, यथाकर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तीपज, आर्य, म्लेच्छ (अनार्य), उन जीवों की उत्पत्ति अपने-अपने बीज और अपने-अपने अवकाश के अनुसार पूर्वकर्म निर्मित योनि में स्त्री पुरुष के मैथुन हेतुक संयोग से होती है। वे जीव (तैजस् और कार्मण शरीर द्वारा) दोनों के रस का आहार करते हैं, आहार करके वे जीव वहाँ स्त्रीरूप में, पुरुषरूप में या नपुंसकरूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव माता के रज (शोणित) और पिता के वीर्य (शुक्र) का जो परस्पर मिले हुए (संसृष्ट) कलुष मलिन और घृणित होते हैं, उनका सर्व प्रथम आहार करते हैं। उसके बाद माता अनेक प्रकार की जिन सरस वस्तुओं का आहार करती है, वे जीव माता के शरीर से निकलते हुए एकदेश ओज का आहार करते हैं, उसके बाद अनुक्रम से वृद्धिंगत होते हुए गर्भ का समय पूर्ण होने पर माता के शरीर से कोई स्त्री रूप में, कोई पुरुषरूप में और कोई नसक रूप में उत्पन्न होते हैं।