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आहार अध्ययन
ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाब वणस्सइसरीरं जाव सव्यप्पणाए आहार आहारेति, अबरे वि य णं तैसि रुक्खजोणियाणं अन्झोरुहाणं सरीरा नाणावण्णा जाय भवतीतिमवखायें।
२. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झोरुहजोणिया अज्झोरुहसंभवा जाव कम्मनिदानेणं तत्थयकमा अज्झोरुहत्ता अज्झोरुहजोणिएमु अज्झोरुहेसु विउट्टंति, ते जीवा तेसिं अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरुहाणं सिणेहमाहारेति ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव वणस्सइसरीरं जाव सव्वप्पणाए आहारं आहारेंति अवरे वि य णं तेसिं अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरुहाणं सरीरा नाणावण्णा जाव भवतीतिमक्खायं । ३. अहावरं पुरक्खायें - इहेगइया सत्ता अज्झोरुहजोणिया अज्झोरुहसंभवा जाय कम्मनिदाणेणं तत्थचकना अज्झोरुहजोणिएस अन्झोरुहेसु अज्झोरुहेसु अज्झोरुहित्ताए विउट्टंति, ते जीवा तेसिं अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरुहाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइसरीरं जाव सव्वप्पणाए आहारं आहारेंति । अवरे वि य णं तेसिं अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरुहाणं सरीरा नाणावण्णा जाव भवतीतिमक्खायं ।
४. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झोरुहजोणिया अज्झोरुहसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवकमा अज्झोरुहजोणिएस अज्झोरुहेसु मूलत्ताए जाब बीयत्ताए विउति । ते जीवा तेसिं अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरुहाणं सिणेहमाहारेति जाब अबरे वि य णं तेसिं अज्झोरुहजोणियाणं मूलाणं जाय बीयाणं सरीरा णाणावण्णा जाव भवतीतिमक्खायं ।
१. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव णाणाविजोणिएस पुढयौलु तणत्ताए विउट्टंत, ते जीवा तेसिं नाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेति जाव ते जीवा कम्मोववन्नगा भवतीतिमक्खायं ।
२. एवं पुढविजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउट्टंति जाव भवतीतिमवखार्थ
३. एवं तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउट्टंत जाव भवतीतिमक्खायं ।
४. एवं तणजोणिएस तणे मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउट्टंति ते जीवा जाव भवतीतिमक्खायं ।
एवं ओसहीण विचत्तारि आलावगा (४)
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वे जीव वृक्षयोनिक वृक्षों के रस का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी के शरीर का यावत् वनस्पति के शरीर का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं तथा दूसरे भी अध्यारूह वनस्पति के शरीरों के नाना प्रकार के वर्ण आदि से बने हुए होते हैं, ऐसा तीर्थंकर देव ने कहा है ।
२. इसके बाद यह वर्णन है कि इस वनस्पतिकाय में अध्यारुहयोनिक जीव अध्यारुह में ही उत्पन्न होते हैं, यावत् कर्म निदान से मरण करके अध्यारुह वृक्षयोनिक के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन वृक्षयोनिक अध्यारुहों के रस का आहार करते हैं, वे जीव पृथ्वी के शरीर का यावत् वनस्पति के शरीर का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। तथा दूसरे भी अध्यारुह वनस्पति के शरीरों के नाना प्रकार के वर्ण आदि से बने हुए होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है।
३. इसके बाद यह वर्णन है कि इस वनस्पतिकायिक में कई अध्यारुहपोनिक प्राणी अध्यारुह वृक्षों में ही उत्पन्न होते हैं यावत् कर्म निदान से मरण करके अध्यारुहयोनिक वृक्षों में अध्यारुह रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के रस का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी के शरीर का यावत् वनस्पति के शरीर का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं तथा दूसरे भी अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के शरीरों के नाना प्रकार के वर्ण आदि से बने हुए होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्री तीर्थंकरदेव ने कहा
है।
४. इसके बाद यह वर्णन है कि इस वनस्पतिकाय में कई अध्यारुहयोनिक होते हैं। वे अध्यारुह वृक्षों में उत्पन्न होते हैं यावत् कर्मनिदान से मरण करके अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के मूल वावत् बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं, वे जीव उन अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के रस का आहार करते हैं यावत् उन अध्यारुहयोनिक पृष्ठों के मूल यावत् बीजों के शरीर नाना वर्ण आदि के बने हुए होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है।
१. इसके बाद यह वर्णन है कि इस वनस्पतिकायिक में कई प्राणी पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं यावत् नाना प्रकार की जाति (योनि) वाली पृथ्वियों पर तृणरूप में उत्पन्न होते हैं, वे तृण के जीव उन नाना प्रकार की जाति वाली पृथ्वियों के रस का आहार करते हैं बावत थे जीव कर्म से प्रेरित होकर तृण के रूप में उत्पन्न होते हैं, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है ।
२. इसी प्रकार कई (वनस्पतिकाधिक) जीव पृथ्वीपोनिक तृणों में तृण रूप में उत्पन्न होते हैं, वे उसी रूप में आहार आदि करते हैं, यह तीर्थंकरदेव ने कहा है।
३. इसी प्रकार कई (वनस्पतिकायिक) जीव तृणयोनिक तृणों में तृण रूप में उत्पन्न होते हैं, वे उसी रूप में आहार आदि ग्रहण करते हैं, यह तीर्थकर देव ने कहा है।
४. इसी प्रकार कई (वनस्पतिकायिक) जीव तृणयोनिक ठगों में मूल यावत् बीजरूप में उत्पन्न होते हैं, वे ही जीव आहार आदि करते हैं, यह तीर्थंकरदेव ने कहा है।
इसी प्रकार औषधिरूप में उत्पन्न (वनस्पतिकायिक) जीवों में भी चार आलापक कहने चाहिए।