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इत्थवेद - पुरिसवेदेसुजीवादीओ तियभंगो। पुंगवेदए जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो ।
अवेदए जहा केवलणाणी।
१२. सरीरदारं
ससरीरी जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
ओरालियासरीरी जीव-मणूसेसु तियभंगो।
अवसेसा आहारगा, णो अणाहारगा-जेसि अत्यि ओरालियसरीरं ।
वेडब्बियसरीरी, आहारगसरीरी व आहारगाणो
अणाहारगा जेसिं अत्थि ।
तेय कम्मगसरीरी जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। असरीरी जीवा सिद्धा य णो आहारगा, अणाहारगा ।
१३. पज्जत्तिदारं
आहारपज्जत्तीपज्जत्तए, सरीरपज्जत्तीपज्जत्तए, इंदिय पज्जत्तीपज्जत्तए, आणापाणुपज्जतीपजत्तए भासामण- पज्जत्तीपज्जत्तए एयासु पंचसु वि पज्जतीसु जीवेसु, मणूसेसु यतियभंगो।
अवसेसा आहारगा, णो अणाहारगा । भासामणपती पंचेद्रियाणं, अवसेसाणं णत्थि ।
"
आहारपज्जती अपजत्तए णो आहारगे अनाहारगे गत्तेण विपुहत्तेण वि ।
सरीरपणती अपजत्तए सिय आहारगे, सिय अणाहारगे ।
उवरिल्लियासु चउसु अपज्जत्तीसु णेरइय- देव - मणूसेसु छांगा।
अवसेसाणं जीवेगिंदिवरजोतियभंगो
भासा-मणपज्जत्तीए अपज्जत्तएसु जीवेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु य तियभंगो,
इय-देव- मणुसु छभंगा ।
सव्वपदेसु एगत्त-पुहत्तेणं जीवादीया दंडगा पुच्छाए भाणियच्या
द्रव्यानुयोग - (१)
स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव के आदि में तीनों भंग होते हैं। नपुंसकवेदी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीनों भंग होते हैं।
अवेदी जीवों का कथन केवलज्ञानी के कथन के समान जानना चाहिए।
१२. शरीर द्वार
समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष (सशरीरी) जीवों में तीनों भंग पाए जाते हैं।
औदारिक शरीरी जीवों और मनुष्यों में तीनों भंग पाए जाते हैं।
शेष जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते हैं, किन्तु जिनके औदारिक शरीर होता है उन्हीं का कथन करना चाहिए।
वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी आहारक होते हैं अनाहारक नहीं होते हैं। किन्तु यह कथन ( जिनके वैक्रियशरीर और आहारकशरीर होता है) उन्हीं के लिए है। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तैजस् शरीर और कार्मणशरीर वाले जीवों में तीनों भंग पाए जाते हैं। अशरीरी जीव और सिद्ध आहारक नहीं होते किन्तु अनाहारक होते हैं।
१३. पर्याप्ति द्वार
आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति तथा भाषा मनः पर्याप्ति इन पांच (छह) पर्याप्तियों से पर्याप्त जीव और मनुष्यों में तीन-तीन भंग होते हैं।
शेष जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते हैं। भाषा मनःपर्याप्ति पंचेंद्रिय जीवों में ही पाई जाती है, अन्य जीवों में नहीं।
आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आारक नहीं होते हैं, वे अनाहारक होते हैं। शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व की अपेक्षा कभी आहारक होता है और कभी अनाहारक होता है।
आगे की (अन्तिम) चार अपर्याप्तियों वाले (शरीरपर्याप्ति, इन्द्रिय-पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति एवं भाषा मनः पर्याप्ति से अपर्याप्तक) नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाए जाते हैं।
शेष में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तीन भंग पाए जाते हैं।
भाषा - मनः पर्याप्ति से अपर्याप्त समुच्चय जीवों और पंचेंद्रिय तिर्यंचों में (बहुत्व की विविक्षा से) तीन भंग पाए जाते हैं। नैरयिकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाए जाते हैं। सभी (१३) पदों में एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से जीव और चौबीस दण्डकों के अनुसार पृच्छा करनी चाहिए।