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उ. गोयमा ! सिय आहारगे, सिय अणाहारगे ।
द. १७-१९. बेदिय-तेहदिय- चउरिदिया मंगा।
सिद्धा अणाहारगा ।
अवसेसाणं तियभंगो।
मिच्छदिट्ठीसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
प सम्मामिच्छदिट्ठी णं भंते! किं आहारगे, अणाहारगे ?
उ. गोयमा ! आहारगे, णो अणाहारगे ।
एवं एगिंदिय-विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणिए ।
एवं पुहत्तेण वि ।
६. संजयदारं
प. संजए णं भंते! जीवे किं आहारगे, अणाहारगे ? उ. गोवमा सिय आहारगे, सिय अणाहारगे ।
एवं मणूसे वि। पुहतेणं तियभंगो।
प. अस्संजए णं भंते ! जीवे किं आहारगे अणाहारगे ?
उ. गोयमा ! सिय आहारगे, सिय अणाहारगे ।
पुहत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
संजयाज जीवे पंचेंद्रिय तिरिक्खजोणिए मणूसे य एए एगत्तेण वि पुहत्तेण वि आहारगा, णो अणाहारगा ।
- असं णो संजयासंजए जीवे सिद्धे य एए गत्ते विपुहत्तेण वि णो आहारगा, अणाहारगा ।
७. कसाय दारं
प. सकसाई णं भंते! जीवे किं आहारगे अणाहारगे ?
उ. गोयमा ! सिय आहारगे, सिय अणाहारगे ।
एवं जाव माणिए ।
पुहत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
कोहकसाईसु जीवादिएस एवं चैव ।
द्रव्यानुयोग - (१)
उ. गौतम ! वह कभी आहारक होता है, कभी अनाहारक होता है।
वं. १७-१९, द्वीन्द्रिय श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (सम्यग्दृष्टियों) में पूर्वोक्त छह भंग होते हैं।
सिद्ध अनाहारक होते है।
शेष सभी में (बहुत्व की अपेक्षा से ) तीन भंग (पूर्ववत्) होते हैं।
मिथ्यादृष्टियों में समुच्चय जीव और एकेन्द्रियों को छोड़कर (प्रत्येक में) तीन-तीन भंग पाए जाते हैं।
प्र. भन्ते ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ?
उ. गौतम ! वह आहारक होता है, अनाहारक नहीं होता है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार का कथन करना चाहिए।
बहुत्व की अपेक्षा से भी इसी प्रकार का कथन समझना चाहिए।
६. संयत द्वार
प्र. भन्ते ! संयत जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ?
उ. गौतम ! वह कभी आहारक होता है, कभी अनाहारक होता है।
इसी प्रकार मनुष्य संयत का भी कथन करना चाहिए।
बहुत्व की अपेक्षा से (समुच्चय जीवों और मनुष्यों में) तीन-तीन भंग पाए जाते हैं।
प्र. भन्ते ! असंयत जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ?
उ. गौतम ! वह कभी आहारक भी होता है, कभी अनाहारक भी होता है।
बहुत्व की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय छोड़कर इनमें तीन भंग होते हैं।
संयतासंयत जीव, पंचेंद्रिय तिर्यञ्च योनिक और मनुष्य, ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते हैं।
नोसंयत-नो असंयत- नौसंयतासंयत जीव और सिद्ध, वे एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं।
७. कषाय द्वार
प्र. भन्ते ! सकषायी जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है?
उ. गौतम ! वह कभी आहारक होता है और कभी अनाहारक होता है।
इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए।
बहुत्व की अपेक्षा से जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर ( सकषाय नारक आदि में) तीन भंग पाए जाते हैं। क्रोधकषायी जीव आदि में भी इसी प्रकार तीन भंग कहने चाहिए।