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आहार अध्ययन
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४. अहवा आहारगे य,अणाहारगा य, ५. अहवा आहारगा य, अणाहारगे य, ६. अहवा आहारगाय,अणाहारगाय।
४. अथवा एक आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं, ५. अथवा बहुत-से आहारक और एक अनाहारक होता है, ६. अथवा बहुत-से आहारक और बहुत-से अनाहारक
होते हैं,
एवं एएछब्भंगा। दं.२-११.एवंजाव थणियकुमारा। दं.१२-१६. एगिदिएसुअभंगये। दं. १७-२०. बेइंदिय जाव पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिएसु तियभंगो। दं.२१-२२.मणूस-वाणमंतरेसुछब्भंगा।
प. णोसण्णी-णोअसण्णी णं भंते ! जीवे किं आहारगे,
अणाहारगे? उ. गोयमा ! सिय आहारगे, सिय अणाहारगे।
एवं मणूसे वि। सिद्धे अणाहारगे। पुहत्तेणं-णोसण्णी-णोअसण्णी जीवा आहारगा वि, अणाहारगा वि। मणूसेसु तियभंगो।
सिद्धा अणाहारगा। ४. लेस्सादारंप. सलेसे णं भंते ! जीवे किं आहारगे, अणाहारगे? उ. गोयमा ! सिय आहारगे, सिय अणाहारगे।
इस प्रकार ये छ भंग हुए। दं.२-११. इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त जानना चाहिए। दं. १२-१६. एकेन्द्रिय जीवों में भंग नहीं होता है। दं. १७-२०. द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिकों पर्यंत पूर्ववत् के तीन भंग कहने चाहिए। दं. २१-२२. मनुष्यों और वाणव्यन्तर देवों में (पूर्ववत्) छह
भंग कहने चाहिए। प्र. भन्ते ! नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव आहारक होता है या ___अनाहारक होता है ? उ. गौतम ! वह कभी आहारक होता है, कभी अनाहारक
होता है। इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी कहना चाहिए। सिद्ध जीव अनाहारक होता है। " बहुत्व की अपेक्षा से-नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। बहुत से मनुष्यों में तीन भंग पाए जाते हैं।
(बहुत से) सिद्ध अनाहारक होते हैं। ४. लेश्या द्वारप्र. भन्ते ! सलेश्य जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है? उ. गौतम ! वह कभी आहारक होता है, कभी अनाहारक
होता है।
इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. भन्ते ! (बहुत) सलेश्य जीव आहारक होते हैं या अनाहारक
होते हैं ? उ. गौतम ! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर इनके तीन
भंग होते हैं। इसी प्रकार कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी और कापोतलेश्यी के विषय में भी समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए। तेजोलेश्या की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अकायिक और वनस्पतिकायिकों में छह भंग कहने चाहिए। शेष जीव आदि में जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती है, उनमें तीन भंग कहने चाहिए। पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले जीव आदि में तीन भंग पाए जाते हैं। अलेश्य समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध एकत्व और बहुत्व
की विवक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं। ५. दृष्टि द्वारप्र. भन्ते ! सम्यग्दृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक
होता है ?
एवं नेरइए जाव वेमाणिए। प. सलेसा णं भंते ! जीवा किं आहारगा, अणाहारगा?
उ. गोयमा !जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
एवं कण्हलेसाए वि, णीललेसाए वि, काउलेसाए वि, जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
तेउलेस्साए पुढवि-आउ-वणस्सइकाइयाणं छब्भंगा।
सेसाणं जीवादीओ तियभंगो जेसिं अत्थि तेउलेस्सा।
पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए यजीवादीओ तियभंगो।
अलेस्सा जीवा मणूसा सिद्धा य एगत्तेण वि पुहत्तेण विणो
आहारगा,अणाहारगा। ५. दिट्ठिदारंप. सम्मदिट्ठी णं भंते !जीवे किं आहारगे,अणाहारगे?