________________
आहार अध्ययन
तत्थ णं जे ते मणभक्खी देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ "इच्छामो णं मणभक्खणं करित्तए" तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव मणुण्णा मणामा ते तेसिं मणभक्खत्ताए परिणमंति,
से जहाणामए सीया पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अइवइत्ताणं चिट्ठति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ताणं चिट्ठति, एवामेव तेहिं देवेहिं मणभक्खे कए समाणे गोयमा ! से इच्छामणे खिप्पामेव अवेइ।
-पण्ण. प.२८, उ.१,सु. १८६२-१८६४ २६. आहारगाणाहारग परूवणस्स तेरसदारा
गाहा-१.आहार, २.भविय, ३.सण्णी, ४. लेस्सा, ५.दिट्ठी य, ६.संजय, ७.कसाए, ८. णाण, ९-१०. जोगुवओगे, ११. वेदे य, १२. सरीर, १३.पज्जत्ती।
१. आहारदारंप. जीवेणं भंते ! किं आहारगे,अणाहारगे? उ. गोयमा ! सिय आहारगे, सिय अणाहारगे।
दं.१-२४.एवं नेरइए जाव वेमाणिए।
३७७ देवों में जो मनोभक्षी देव होते हैं, उनको मनेच्छा (अर्थात्-मन में आहार करने की इच्छा) उत्पन्न होती है। जैसे कि-'वें चाहते हैं कि हम मन में चिन्तित वस्तु का भक्षण करें। तत्पश्चात् उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार की इच्छा किए जाने पर शीघ्र ही जो पुद्गल इष्ट, कान्त (कमनीय) यावत् मनोज्ञ, मनाम होते हैं, वे उनके मनोभक्ष्यरूप में परिणत हो जाते हैं। जिस प्रकार कोई शीत (ठण्डे) पुद्गल, शीत पुद्गलों को पाकर शीत स्वभाव में रहते हैं अथवा उष्ण पुद्गल उष्ण पुद्गलों को पाकर उष्ण स्वभाव में रहते हैं। हे गौतम ! इसी प्रकार उन देवों द्वारा मनोभक्षण किए जाने पर, उनका इच्छा प्रधान मन शीघ्र ही सन्तुष्ट-तृप्त हो
जाता है। २६. आहारक-अनाहारक प्ररूपण के तेरह द्वार
गाथार्थ-१.आहारद्वार, २. भव्यद्वार, ३. संज्ञीद्वार, ४. लेश्याद्वार, ५. दृष्टिद्वार, ६. संयतद्वार,
७. कषायद्वार, ८. ज्ञानद्वार, ९. योगद्वार, १०. उपयोगद्वार, ११. वेदद्वार, १२. शरीरद्वार, १३. पर्याप्तिद्वार। १. आहार द्वारप्र. भन्ते ! जीव आहारक है या अनाहारक है ? उ. गौतम ! वह कभी आहारक है, कभी अनाहारक है।
दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यंत जानना
चाहिए। प्र. भन्ते ! सिद्ध आहारक है या अनाहारक है ? उ. गौतम ! सिद्ध आहारक नहीं है, अनाहारक है। प्र. भन्ते ! (बहुत) जीव आहारक हैं या अनाहारक हैं ? उ. गौतम ! वे आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं। प्र. दं. १-२४. भन्ते ! (बहुत) नैरयिक आहारक होते हैं या
अनाहारक होते हैं ? उ. गौतम ! १. वे सभी आहारक होते हैं, २. अथवा बहुत आहारक और कोई एक अनाहारक
होता है, ३. अथवा बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। दं.१-२४. इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त तक जानना चाहिए। विशेष-एकेन्द्रिय जीवों का कथन बहुत जीवों के समान
समझना चाहिए। प्र. भन्ते ! सिद्ध आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? उ. गौतम ! सिद्ध आहारक नहीं होते, वे अनाहारक होते हैं। २. भवसिद्धिक द्वारप्र. भन्ते ! भवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक
होता है?
प. सिद्धे णं भंते ! किं आहारगे, अणाहारगे? उ. गोयमा ! णो आहारगे, अणाहारगे। प. जीवाणं भंते ! किं आहारगा, अणाहारगा? उ. गोयमा ! आहारगा वि, अणाहारगा वि। प. दं.१-२४.णेरइयाणं भंते ! किं आहारगा, अणाहारगा?
।
उ. गोयमा!१.सव्वे वि ताव होज्जा आहारगा,
२. अहवा आहारगा य, अणाहारगे य,
३. अहवा आहारगा य, अणाहारगा य। दं.१-२४. एवं जाव वेमाणियारे। णवरं-एगिंदिया जहा जीवा।
प. सिद्धा णं भंते ! किं आहारगा, अणाहारगा ? उ. गोयमा !णो आहारगा, अणाहारगा। २. भवसिद्धियदारंप. भवसिद्धिए णं भंते ! जीवे किं आहारगे, अणाहारगे?
१. विया.स.१३,उ.५,सु.१ २. (क) ठाणं.अ.२, उ.२,सु.६९/५
(ख) विया.स.११,उ.१,सु.२१ (ग) विया.स.११,उ.२-३