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उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे ।
प से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"गब्भगयस्स समाणस्स णत्थि उच्चारे इ वा जाव पित्ते इवा ?"
उ. गोयमा जीवे णं गब्धगए समाणे जमाहारेड तं चिणाइ त सोइदियत्ताए जाब फासिंदियत्ताए अट्ठि अट्ठिमिंजकेस मंसु - रोम-नहत्ताए ।
से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"गभगयस्स समाणस्स णत्थि उच्चारे इ वा जाव पित्ते इ वा।"
प. जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे पभू मुहेणं कावलियं आहारं आहारितए ?
उ. गोयमाणो इणट्ठे समट्ठे ।
प से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"गव्भगए समाणे जीवे नो पभू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए ?"
उ. गोयमा ! जीवे णं गब्धगए समाणे, सव्वओ आहारेइ, सव्वओ परिणामेइ, सव्वओ उस्ससइ, सव्वओ निस्ससइ, अभिक्खर्ण आहारे, अभिक्खणं परिणामेइ, अभिक्खणं उस्ससद अभिक्सणं निस्सस,
"
आहच्च आहारेइ, आहच्च परिणामेइ,
आहच्च उस्ससइ, आहच्च निस्ससइ । मातुजीवरसहरणी, पुत्तजीवरसरणी माजीवपडिका पुत्तजीव फुडा तम्हा आहारेइ, तम्हा परिणामेड,
अवरा वि य णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाइ, तम्हा उवचिणाद।
से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं युच्चइ
"गभगए समाणे जीवे नो पभू मुहेणं कावलियं आहार आहारितए। - विया. स. १, उ. ७, सु. १२-१५ ४. समोहयस्स पुढवि- आउ वाउकाइयस्स उप्पत्तीए पुव्वं पच्छा वा आहार गहण परूवणं
प. पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए
से णं भंते! किं पुव्विं उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा, पुव्विं आहारेत्ता पच्छा उववज्जेज्जा ?
द्रव्यानुयोग - (१)
उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है - ( गर्भगत जीव के ये सब ( मल-मूत्रादि) नहीं होते हैं।)
प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहते है कि
"गर्भ में रहे हुए जीव के मल-मूत्रादि यावत् पित्त नहीं होते हैं ?"
उ. गौतम ! गर्भ में जाने पर जीव जो आहार करता है, जिस आहार का चय करता है, उस आहार को श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में तथा हड्डी, मन्जा, केश, दाढ़ी-मूँछ, रोम और नलों के रूप में परिणत करता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"गर्भ में गए हुए जीव के मल-मूत्रादि यावत् पित्त नहीं होते हैं ।"
प्र. भन्ते ! क्या गर्भ में रहा हुआ जीव मुख से कवलाहार (ग्रासरूप
में आहार) करने में समर्थ है?
गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि
"गर्भ में रहा हुआ जीव मुख से कवलाहार करने में समर्थ नहीं है ?"
उ. गौतम गर्भगत जीव
उ.
प्र.
सब ओर से आहार करता है, सारे शरीर से परिणमाता है, सर्वात्मना उच्वास लेता है, सर्वात्मना निःश्वास लेता है, बार-बार आहार करता है, बार-बार परिणमाता है, बार-बार उच्छ्वास लेता है, बार-बार निःश्वास लेता है, कभी आहार करता है, कभी परिणमाता है,
कभी उच्छ्वास लेता है, कभी निःश्वास लेता है,
तथा पुत्र (पुत्री) के जीव को रस पहुँचाने में कारणभूत और माता के रस लेने में कारणभूत जो मातृजीवरसहरणी नाम की नाड़ी है उसका माता के जीव के साथ सम्बन्ध है और पुत्र (पुत्री) के जीव के साथ स्पृष्ट है उस नाड़ी द्वारा वह (गर्भगत जीव) आहार लेता है और आहार को परिणमाता है।
तथा एक और नाड़ी है, जो पुत्र (पुत्री) के जीव के साथ सम्बद्ध है और माता के जीव के साथ स्पृष्ट है, उससे (गर्भगत) पुत्र ( या पुत्री ) का जीव आहार का चय करता है और उपचय करता है।
इस कारण से गौतम! ऐसा कहा जाता है कि"गर्भगत जीव मुख द्वारा कवलरूप आहार को लेने में समर्थ नहीं है।"
४. समवहत पृथ्वी-अप्-वायुकायिक का उत्पत्ति के पूर्व और पश्चात् आहार ग्रहण का प्ररूपण
प्र. भंते ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य है
तो भंते ! वह पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होता है ?