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देसेणं समोहन्नमाणे पुव्विं आहारेत्ता पच्छा उववज्जिज्जा, सव्वेणं समोहण्णमाणे पुव्विं उववज्जेत्ता पच्छा आहारेज्जा। एवं जहा पुढविकाइओ तहा वाउकाइओ वि,
णवर-अंतरेसु समोहणा णेयब्बो सेसंतं चेव जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसीपब्भराए य पुढवीए। अंतरा समोहए समोहणित्ता जे भविए अहे सत्तमाए घणवाय तणुवाए, घणवायवलएसु तणुवायवलएसु वाउकाइयत्ताए उववज्जित्तए सेसं तं चेव जाव
द्रव्यानुयोग-(१) "देश से समुद्घात करने पर पहले आहार करता है और पीछे उत्पन्न होता है तथा सर्व से समुद्घात करने पर पहले उत्पन्न होता है और पीछे आहार करता है।" इसी प्रकार जैसे पृथ्वीकायिक का उपपात कहा उसी प्रकार वायुकाय के लिए कहना चाहिए। विशेष-अन्तरालों में समुद्घात जानना चाहिए। शेष पूर्ववत् है। अनुत्तरविमान और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी पर्यन्त के अन्तराल में समुद्घात करके अधःसप्तमपृथ्वी में घनवात, तनुवात, धनवातवलय, तनुवातवलय में वायुकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य है इत्यादि शेष पूर्ववत् है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है और पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होता है।"
से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'पुव्विं वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा, पुव्विं वा आहारेज्जा पच्छा उववज्जेज्जा।"
-विया. स. २० उ.६.सु.१-२४ ५. वणस्सइजीवाणं अप्पाहार-महाहारकालं परूवणं
प. वणस्सइकाइया णं भंते ! कं कालं सव्वप्पाहारगा वा,
सव्वमहाहारगा वा भवंति?
उ. गोयमा ! पाउस-वरिसारत्तेसु णं एत्थ णं वणस्सइकाइया
सव्वमहाहारगा भवंति। तदाणंतरं चणं सरदे, तदाणंतरं च णं हेमंते, तदाणंतरं च णं बसंते, तदाणंतरं च णं गिम्हे। गिम्हासुणं वणस्सइकाइया सव्वापाहारगा भवंति।
प. जइ णं भंते ! गिम्हासु वणस्सइकाइया सव्वप्पाहारगा
भवंति, कम्हा णं भंते ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुफिया फलिया हरितगरेरिज्जमाणा सिरीए
अतीव अतीव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठति ? उ. गोयमा ! गिम्हासुणं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पुग्गला
य वणस्सइकाइयत्ताए वक्कमंति विउक्कमति चयंति उववज्जति,
५. वनस्पतिकायिक जीवों के अल्पाहार और महाहार काल का
प्ररूपणप्र. भन्ते ! वनस्पतिकायिक जीव किस काल में (सबसे अल्प
आहार करने वाले होते है और किस काल में) सबसे अधिक
आहार करने वाले होते हैं ? उ. गौतम ! प्रावृट् (पावस) ऋतु (श्रावण और भाद्रपद मास) में
तथा वर्षा ऋतु (आश्विन और कार्तिक मास) में वनस्पतिकायिक जीव सर्वमहाहारी होते हैं। इसके पश्चात् शरद् ऋतु में, तदनन्तर हेमन्त ऋतु में, इसके बाद वसन्त ऋतु में और तत्पश्चात् ग्रीष्म ऋतु में वनस्पतिकायिक जीव क्रमशः
अल्पाहारी होते हैं। ग्रीष्म ऋतु में वे सर्वाल्पाहारी होते हैं। प्र. भन्ते ! यदि ग्रीष्म ऋतु में वनस्पतिकायिक जीव सर्वाल्पाहारी
होते हैं, तो बहुत से वनस्पतिकायिक ग्रीष्म ऋतु में पत्तों वाले, फूलों वाले, फलों वाले, हरियाली से देदीप्यमान (हरे-भरे) एवं
श्री (शोभा) से अतीव सुशोभित कैसे होते हैं ? उ. हे गौतम ! ग्रीष्म ऋतु में बहुत-से उष्णयोनि वाले जीव और
पुद्गल वनस्पतिकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं, विशेष रूप से उत्पन्न होते हैं, वृद्धि को प्राप्त होते हैं और विशेष रूप से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। हे गौतम ! इस कारण से ग्रीष्म ऋतु में बहुत-से वनस्पतिकायिक पत्तों वाले, फूलों वाले, फलों वाले यावत्
सुशोभित होते हैं। ६. मूलादि की आहार ग्रहण विधि का प्ररूपणप्र. भन्तें ! क्या वनस्पतिकाय के मूल, निश्चय ही मूलजीवों से
स्पृष्ट होते हैं, कन्द, कन्द के जीवों से स्पृष्ट होते हैं यावत्
बीज, बीज के जीवों से स्पृष्ट होते हैं ? उ. हाँ, गौतम ! मूल, मूल के जीवों से स्पृष्ट होते हैं यावत् बीज,
बीज के जीवों से स्पृष्ट होते हैं।
एवं खलु गोयमा ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुफिया फलिया जाव चिट्ठति।
-विया.स.७, उ.३.सु.१-२ ६. मूलाईणं आहारगहण विहि परूवणंप. से नूणं भंते ! मूला मूलजीवफुडा, कंदा कंदजीवफुडा जाव
बीया बीयजीवफुडा?
उ. हता, गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया
बीयजीवफुडा।