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आहार अध्ययन
उ. गोयमा ! णिव्वाघाएणं छद्दिसिं
वाघाय पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदसिं
नवरं ओसणकारणं ण भवइ.
बणओ-काल-पील- लोहिय- हालिद्द-सुक्किलाई गंधओ-सुब्मिगंध - दुब्बिगंधाई,
रसओ - तित्त कडुय कसाय- अंबिल-महुराई, फासओ - कक्खड -मउय - गरुय-लहुय सीय-उसिणणिध-लुक्लाई तेस पोराणे वण्णगुणे
४. सेसं जहा णेरइयाणं जाव आहच्च णीससंति।
प. ५. पुढविकाइयाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति तेसि णं भंते ! पोग्गलाणं सेयालंसि कइभागं आहारेंति, कहभाग आसाएति ?
उ. गोयमा ! असंखेज्जइभागं आहारेति, अनंतभागं आसाएंति ।
प. ६. पुढविकाइया णं भंते! जे पोग्गले आहारताए गेहति ते किं सच्चे आहारेति, जो सच्चे आहारैति ?
,
उ. गोयमा ! ते सब्वे अपरिसेसिए आहारैति ।
प. ७. पुढविकाइया णं भते जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति,
णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणति ? उ. गोयमा ! फासिंदियवेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ।
दं. १३-१६. एवं जाय वणस्सइकाइयाणं' |
- पण्ण. प. २८, उ. १, सु. १८०७-१८१३
१९. विगलिंदिए आहारट्ठिआइदारसत्तगं
प. दं. १७-१९.१. बेइंदिया णं भंते ! आहारट्ठी ? उ. हंता गोयमा! आहारट्ठी ।
प. २. बेइंदिया णं भंते! केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ ?
उ. गोयमा ! जहा णेरइयाणं ।
नवरं तत्थ जे से आभोगणिव्यत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए बेमायाए आहारट्ठे समुप्पज्जइ ।
नियमा
- जीवा. पडि. १, सु. १४, १५-२६
१. (क) बायर आउक्काइया आहारो छद्दिसिं ।
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उ. यदि व्याघात न हो तो वे छहों दिशाओं से आहार करते हैं।
यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से स्थित द्रव्यों का आहार करते हैं।
विशेष - ( पृथ्वीकायिकों के सम्बन्ध में) बहुलता नहीं कही जाती।
वर्ण से कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत, गन्ध से-सुगन्ध और दुर्गन्ध वाले,
रस से - तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस वाले,
स्पर्श से - कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष स्पर्श वाले (द्रव्यों का आहार करते हैं) तथा
उन (आहार किए जाने वाले पुद्गल द्रव्यों) के पुराने वर्ण आदि गुण परिवर्तित हो जाते हैं।
४. शेष सब कथन नारकों के समान कदाचित् उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं पर्यन्त जानना चाहिए।
प्र. ५. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों में से भविष्यकाल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ?
उ. गौतम ! असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं।
प्र. ६. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या सभी का आहार करते हैं या उन सबका आहार नहीं करते हैं ?
उ. गौतम ! शेष बचाए बिना उन सबका आहार कर लेते हैं। प्र. ७. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं,
वे पुद्गल (पृथ्वीकायिकों में) किस रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं?
उ. गौतम ! (वे पुद्गल) विषम मात्रा से स्पर्शेन्द्रिय के रूप में बार-बार परिणत होते हैं।
दं. १३-१६. इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों पर्यन्त समझ लेना चाहिए।
१९. विकलेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार
प्र. दं. १७-१९. १. भन्ते ! क्या द्वीन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं ? उ. हां, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं।
प्र. २. भन्ते ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ?
उ. गौतम ! इनका कथन नारकों के समान समझना चाहिए। विशेष-उनमें जो आभोगनिवर्तित आहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त में विमात्रा से उत्पन्न होती है।
(ख) पण्ण. प. ३४, सु. २०३९ (ग) विया. स. १, उ. १, सु. ६ /१२ (४-५ ) विया. स. ११, उ. १, सु. ४०
विया. स. ११, उ. २-८
२. (क) पण्ण. प. ३४, सु. २०३९ (ख) विया. स. १, उ. १, सु. ६/१७, २-३