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द्रव्यानुयोग-(१)
३-४.सेसं जहा पुढविक्काइयाणं जाव आहच्च णीससंति,
णवरं-णियमा छद्दिसिं। प. ५. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति,
ते णं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कइभागं आहारेंति, .
कइभागं आसाएंति? उ. गोयमा !एवं जहाणेरइयाणं। प. ६.बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहति ते
किं सव्वे आहारैति,णो सब्वे आहारेंति?
उ. गोयमा ! बेइंदियाणं दुविहे आहारे पण्णत्ते,तं जहा
१.लोमाहारे य,२.पक्खेवाहारे य। जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गेहति ते सव्वे अपरिसेसे आहारेंति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेण्हंति तेसिं असंखेज्जइभागमाहारेंति, णेगाई च णं भागसहस्साई अफासाइज्जमाणाणं, अणासाइज्जमाणाणं विद्धंसमागच्छति।
३-४. शेष सब कथन पृथ्वीकायिकों के समान कदाचित् निःश्वास लेते हैं पर्यन्त कहना चाहिए।
विशेष-वे नियम से छहों दिशाओं से आहार लेते हैं। प्र. ५.भन्ते ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण
करते हैं, वे भविष्य में उन पुद्गलों के कितने भाग का आहार
करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? उ. गौतम ! इस विषय में नैरयिकों के समान कहना चाहिए। प्र. ६.भन्ते ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण
करते हैं, क्या वे उन सबका आहार करते हैं या उन सबका
आहार नहीं करते? उ. गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का कहा गया
है,यथा१.लोमाहार २. प्रक्षेपाहार। वे जिन पुद्गलों को लोमाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सबका समग्ररूप से आहार करते हैं। जिन पुद्गलों को प्रक्षेपाहार रूप में ग्रहण करते हैं, उनमें से असंख्यातवें भाग का ही आहार करते हैं। उनके बहत-से (अनेक) सहन भाग, यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, न ही उनका बाहर-भीतर स्पर्श हो पाता है और न ही उनका आस्वादन हो पाता है। प्र. भन्ते ! इन पूर्वोक्त प्रक्षेपाहार पुद्गलों में से आस्वादन न किए । जाने तथा स्पृष्ट न होने वाले पुद्गलों में कौन किससे अल्प
यावत् विशेषाधिक है? उ. गौतम ! १. सबसे अल्प आस्वादन न किए जाने वाले पुद्गल हैं,
२.(उनसे) अनन्तगुणे (पुद्गल) स्पृष्ट न होने वाले हैं। प्र. ७. भन्ते ! द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में
ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किस-किस रूप में पुनः-पुनः परिणत
होते हैं ? उ. गौतम ! वे पुद्गल जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के
रूप में पुनः-पुनः परिणत होते हैं। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष-इनके (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) द्वारा प्रक्षेपाहार रूप में गृहीत पुद्गलों के अनेक सहस्रभाग अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान (बिना छुए हुए) तथा अनास्वाद्यमान (स्वाद लिए बिना) ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं। प्र. भन्ते ! इन अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान और अनास्वाद्यमान
पुद्गलों में से कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ?
प. एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं अणासाइज्जमाणाणं
अफासाइज्जमाणाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा जाव विसेसाहिया वा? उ. गोयमा !१. सव्वत्थोवा पोग्गला अणासाइज्जमाणा,
२-अफासाइज्जमाणा अणंतगुणा। प. ७. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहति ते णं
तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति?
उ. गोयमा ! जिन्मिंदिय-फासिंदियवेमायत्ताए ते तेसिं
भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। एवं जाव चउरिदिया। णवरं-णेगाईं च णं भागसहस्साई अणाघाइज्जमाणाई अफासाइज्जमाणाइं अणासाइज्जमाणाई वि विद्ध समागच्छति।
प. एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं अणाघाइज्जमाणाणं
अणासाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाण य कयरे
कयरेहिंतो अप्पा वा जाव विसेसाहिया वा? उ. गोयमा ! १. सब्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइज्जमाणा,
२. अणासाइज्जमाणा अणंतगुणा,
३. अफासाइज्जमाणा अणंतगुणा। प. द. १८. तेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गला आहारत्ताए
गेण्हति ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति?
उ. गौतम ! १. अनाघ्रायमाण पुद्गल सबसे अल्प हैं,
२.(उनसे) अनास्वाद्यमान पुद्गल अनंतगुणे हैं,
३. (उनसे) अस्पृश्यमान पुद्गल भी अनन्तगुणे है। प्र. दं.१८. भन्ते ! त्रीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप
में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें किस रूप में पुनःपुनः परिणत होते हैं?
१. जीवा. पडि.१ सु.२८
२. विया.स.१.उ.१,सु.६/१७,५-६