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च णं विक्वंभबाहल्लेणं भूमि दालित्ताणं समुढेइऽअसण्णी मिच्छद्दिट्ठी अण्णाणी अंतोमुत्तद्धाउया चेव कालं करेइ।
सेतं आसालिया। प. (४) से किं तं महोरगा? उ. १.महोरगा अणेगविहा पण्णत्ता,तं जहा
अत्थेगइया अंगुलं वि, अंगुलपुहत्तिया वि, वियत्थिं वि, वियत्थिपुहत्तिया वि, रयणिं वि, रयणिपुहत्तिया वि, कुच्छिं वि, कुच्छिपुहत्तिया वि, धणुं वि, धणुपुहत्तिया वि, गाउयं वि, गाउयपुहत्तिया वि, जोयणं वि, जोयणपुहत्तिया वि, जोयणसयं वि, जोयणसयपुहत्तिया विजोयणसहस्सं वि। ते णं थले जाता जले वि चरंति, थले वि चरंति। ते णंत्थि इहं, बाहिरएसु दीव-समुद्दएसु हवंति, जे यावऽण्णे तहप्पगारा।
द्रव्यानुयोग-(१) वह चक्रवर्ती के स्कन्धावार आदि के नीचे की भूमि को फाड कर प्रादुर्भूत होता है। वह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है, तथा अन्तर्मुहूर्त काल की आयु भोग कर मर जाता है।
यह आसालिक की प्ररूपणा हुई। प्र. (४) महोरग कितने प्रकार के हैं ? उ. १. महोरग अनेक प्रकार के कहे गए हैं, यथा
कई महोरग एक अंगुल के कई, अंगुलपृथक्त्व के, कई वितस्ति के कई वितस्तिपृथक्त्व के, कई एक रलि भर के, कई रलिपृथक्त्व के, कई कुक्षिप्रमाण के, कई कुक्षिपृथक्त्व के भी, कई धनुष प्रमाण, कई धनुषपृथक्त्व के भी, कई गव्यूति-प्रमाण के, कई गव्यूति-पृथक्त्व के , कई योजनप्रमाण के, कई योजनपृथक्त्व के, कई सौ योजन के, कई योजनशत-पृथक्त्व के और कई हजार योजन के भी होते हैं। वे महोरग भूमि पर उत्पन्न होते हैं, किन्तु जल और स्थल दोनों में विचरते हैं। वे यहां (मनुष्य क्षेत्र में) नहीं होते हैं, किन्तु मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप समुद्रों में होते हैं। इसी प्रकार के अन्य जो भी उरःपरिसर्प हों, उन्हें भी महोरग-जाति के समझने चाहिए। यह महोरगों की प्ररूपणा हुई। वे (उर परिसर्प) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. सम्मूर्छिम, २. गर्भज। २. इनमें से जो सम्मूर्छिम हैं, वे सभी नपुंसक होते हैं। ३. इनमें से जो गर्भज हैं,वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा
सेतं महोरगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता,तंजहा१. सम्मुच्छिमा य,२. गब्भवक्कंतिया यर। २. तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते सब्वे नपुंसगा। ३. तत्थ णं जे ते गब्भवक्कंतिया ते णं तिविहा पण्णत्ता,
तंजहा१. इत्थी, २.पुरिसा,३. नपुंसगा। ४. एएसि णं एवमाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं
उरपरिसप्पाणं दस जाइ-कुल-कोडीजोणिप्प
मुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। सेतं उरपरिसप्पा।
-पण्ण.प.१, सु.७६-८४ भुयपरिसप्पाण पण्णवणाप. से किं तं भुयपरिसप्पा? उ. १.भुयपरिसप्पा अणेगविहा पण्णत्ता,तं जहा
णउला, गोहा, सरडा, सल्ला, सरंठा, सारा, खारा, घरोइला, विस्संभरा, मूसा, मंगुसा, पयलाइया, छीरविरालिया जहा चउप्पाइया, जे यावऽण्णे तहप्पगारा।
१. स्त्री, २. पुरुष ३. नपुंसक। ४. इस प्रकार (अहि इत्यादि) इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक
उरःपरिसों के दस लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख
होते हैं ऐसा कहा है। यह उरःपरिसपों की प्ररूपणा हुई। भुजपरिसपों की प्रज्ञापनाप्र. भुजपरिसर्प कितने प्रकार के हैं ? उ. १. भुजपरिसर्प अनेक प्रकार के कहे गए हैं, यथा
नकुल, गोह, सरट, शल्य, सरंठ, सार, खार, गृहकोकिला, विषम्भरा, मूषक, मंगुसा, पयोलातिक, क्षीरविडालिका हैं। जैसे चतुष्पद स्थलचर का कथन किया है वैसे ही इनका समझना चाहिए। इसी प्रकार के अन्य जितने भी भुजा से चलने वाले प्राणी हों, उन्हें भुजपरिसर्प समझना चाहिए। २. वे (नकुल आदि पूर्वोक्त भुजपरिसर्प) संक्षेप में दो प्रकार
के कहे गये हैं, यथा१. सम्मूर्छिम, २. गर्भज।
२. ते समासओ दुविहा पण्णत्ता,तं जहा
१. सम्मुच्छिमा य,२. गब्भवक्कंतिया य।
१. जीवा. पडि. १, सु. ११० २. (क) ठाणं. अ. ९,सु.७०१
(ख) ठाणं. अ.१०, सु.७८२
(ग) जीवा. पडि. १.सु. ३६ (घ) जीवा. पडि. १, सु. ३९