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स्थिति अध्ययन : आमुख
यद्यपि ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों की स्थिति होती है। प्रत्येक कर्म की फलदान अवधि उसकी स्थिति कही जाती है। किन्तु प्रस्तुत अध्ययन आयुष्य कर्म से सम्बद्ध स्थिति का ही निरूपण करता है। वह स्थिति दो प्रकार की कही गई है-१. कायस्थिति और २. भवस्थिति। एक ही प्रकार की गति एवं आयुष्य का अनेक भवों तक बना रहना कायस्थिति कहलाता है तथा एक ही भव में उस गति एवं आयुष्य का बना रहना भवस्थिति कहा जाता है।
यह अध्ययन मात्र भवस्थिति से सम्बन्धित है।
भवस्थिति का वर्णन इस अध्ययन में चौबीस दण्डकों के क्रम से हुआ है। प्रत्येक दण्डक एवं उसके विशेष भेदों की स्थिति का निरूपण औधिक, अपर्याप्त एवं पर्याप्त द्वारों से किया गया है।
समस्त अपर्याप्त जीवों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। कोई भी अपर्याप्त जीव अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक अपर्याप्त नहीं रहता है। अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर वह सम्पूर्ण योग्य पर्याप्तियों को ग्रहण कर लेता है। पर्याप्त जीवों की स्थिति उनकी औधिक स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम होती है। जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक की औधिक स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट एक सागरोपम होती है तो पर्याप्त नैरयिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त कम एक सागरोपम होगी क्योंकि औधिक स्थिति में से अपर्याप्त काल की स्थिति को घटाने पर पर्याप्त जीव की स्थिति ज्ञात हो जाती है। यह सूत्र सभी प्रकार के पर्याप्त जीवों की स्थिति पर लागू होता है।
औधिकरूप से नैरयिकों एवं देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम होती है। तिर्यञ्च एवं मनुष्य गति के जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम होती है।
रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियों के आधार पर नैरयिक सात प्रकार के हैं, उनमें प्रत्येक की स्थिति जघन्य एवं उत्कृष्ट की दृष्टि से भिन्न है। इसी प्रकार भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देवों की स्थिति भिन्न-भिन्न है।
भवनपति दस प्रकार के हैं। उनमें प्रत्येक की स्थिति का वर्णन करने के साथ उनके इन्द्रों चमर, बली, धरण, भूतानन्द आदि की आभ्यन्तर, मध्यम एवं बाह्य परिषदों में विद्यमान देवों की स्थिति का पृथक् उल्लेख भी किया गया है। देवियों की स्थिति का वर्णन देखने पर ज्ञात होता है कि देवियों की उत्कृष्ट स्थिति सर्वत्र देवों से कम है। भवनवासी देवों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक है तो उनकी देवियों की उत्कृष्ट स्थिति साढ़े चार पल्योपम है। इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम है तो उनकी देवियों की स्थिति अर्द्ध पल्योपम मात्र है। ज्योतिषी देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम है तो उनकी देवियों की उत्कृष्ट स्थिति पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्ध पल्योपम है। वैमानिक देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है तो देवियों की उत्कृष्ट स्थिति ५५ पल्योपम है।
वैमानिक देवों की देवियां दो प्रकार की होती हैं-परिगृहीता और अपरिगृहीता। इनमें परिगृहीता की अपेक्षा अपरिगृहीता देवियों की स्थिति अधिक होती है। ये देवियां दूसरे देवलोक तक ही प्राप्त होती हैं, आगे नहीं।
यह उल्लेखनीय है कि देवियों की उत्कृष्ट स्थिति देवों से कम होने पर भी उनकी जघन्य स्थिति देवों के समान है। भवनपति एवं वाणव्यन्तर देवों देवियों की जघन्य स्थिति समान रूप से दस हजार वर्ष है। ज्योतिषी देवों एवं देवियों की जघन्य स्थिति समान रूप से पल्योपम का आठवां भाग है। वैमानिक देवों की भांति उनकी देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम है।
वाणव्यन्तर देवों की स्थिति का वर्णन जहाँ हुआ है वहाँ काल पिशाच कुमारेन्द्र की आभ्यन्तर मध्यम एवं बाह्य परिषद् के देव एवं देवियों की स्थिति का भी वर्णन प्राप्त है। इनके अतिरिक्त जृम्भक देवों, विजय देव एवं उसके सामानिक देवों की स्थिति का भी उल्लेख है। ज्योतिषी देवों की स्थिति का निरूपण होने के साथ चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र एवं तारा विमानवासी देवों तथा देवियों की स्थिति का भी औधिक, अपर्याप्त एवं पर्याप्त द्वारों से वर्णन प्राप्त है।
वैमानिक देवों में बारह देवलोकों के देवों की स्थिति का वर्णन होने के साथ शक्र एवं ईशान देवेन्द्रों की विभिन्न परिषदों के देवों एवं देवियों की स्थिति का उल्लेख है। किल्विषिक एवं लोकान्तिक देवों की स्थिति का वर्णन भी वैमानिक देवों की स्थिति के साथ हुआ है।
यह उल्लेखनीय है कि इस स्थिति अध्ययन में नवग्रैवेयकों एवं पाँच अनुत्तरविमानों के देवों की स्थिति का वर्णन नहीं हुआ है। अन्यत्र प्राप्त वर्णन के अनुसार ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य २२ सागरोपम तथा उत्कृष्ट ३१ सागरोपम होती है। इनमें पहले ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य २२ सागरोपम तथा उत्कृष्ट २३ सागरोपम, दूसरे ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य २३ सागरोपम तथा उत्कृष्ट २४ सागरोपम, तीसरे ग्रैवेयक देवों की स्थिति जघन्य
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