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प्रथम-अप्रथम अध्ययन
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प. णाणी णं भंते ! जीवा णाणभावेणं किं पढमा, अपढमा? उ. गोयमा ! पढमा वि,अपढमा वि।
दं.१-११,१७-२४.एवं एगेंदियवज्जा जाव वेमाणिया,
सिद्धा-पढमा, नो अपढमा। आभिणिबोहियणाणी जाव मणपज्जवणाणीणं एगत्त पुहत्तेण वि एवं चेव। णवरं-जस्स जं अत्थि। केवलणाणी जीवे, मणुस्से, सिद्धे एगत्त पुहत्तेणं-पढमा, नो
अपढमा। प. अण्णाणी णं भंते ! जीवे अण्णाणभावेणं किं पढमे,
अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे।
दं.१-२४. एवं नेरइए जाव वेमाणिए।
प्र. भन्ते ! ज्ञानी जीव ज्ञानी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम भी है और अप्रथम भी है।
द. १-११, १७-२४. इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं है।
आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्याय ज्ञानी एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा इसी प्रकार हैं। विशेष-यह है जिस जीव के जितने ज्ञान हों, उतने कहने चाहिए। केवलज्ञानी जीव, मनुष्य और सिद्ध एकवचन बहुवचन की
अपेक्षा प्रथम है, अप्रथम नहीं है। प्र. भन्ते ! अज्ञानी जीव अज्ञान भाव से प्रथम है या अप्रथम है?
एवं मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगणाणी य।
पुहत्तेण वि एवं चेव। १०. जोग दारंप. सजोगी णं भंते ! जीवे सजोगीभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे,अपढमे।
एवं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी वि। णवरं-जस्स जं अस्थिर।
प. अजोगीणं भंते!जीवे अजोगीभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! पढमे, नो अपढमे।
मणुस्से, सिद्धे वि एवं चेव।
पुहत्तेण वि एवं चेव। ११. उवओग दारंप. सागारोवउत्ते णं भंते ! जीवे सागारोवउत्तभावेणं किं
पढमे,अपढमे? उ. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अषढमे।
दं.१-२४. एवं नेरइए जाव वेमाणिए।
उ. गौतम ! वह प्रथम नहीं, अप्रथम है।
दं.१-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी है।
बहुवचम की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। १०. जोग द्वार
प्र. भन्ते ! सयोगी जीव सयोगी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है।
इसी प्रकार मनयोगी, वचनयोगी और कायगोगी भी है। विशेष-यह है कि जिस जीव के जितने योग हों उतने कहने
चाहिए। प्र. भन्ते ! अयोगी जीव अयोगी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है।
मनुष्य और सिद्ध भी इसी प्रकार है।
बहुवचन की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। ११. उपयोग द्वारप्र. भन्ते ! साकारोपयुक्त जीव साकारोपयुक्त भाव से प्रथम है
या अप्रथम है? उ. गौतम ! कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है।
दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। सिद्ध भी इसी प्रकार है। वहुवचन की अपेक्षा सभी जीव और २४ दण्डक प्रथम भी है
और अप्रथम भी है। प्र. भन्ते ! अनाकारोपयुक्त जीव अनाकारोपयुक्त भाव से प्रथम
है या अप्रथम है? उ. गौतम ! कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है।
सिद्धे वि एवं चेव, पुहत्तेण सव्वे पढमा वि, अपढमा वि।
प. अणागारोवउत्ते णं भंते ! जीवे अणागारोवउत्तभावेणं किं
पढमे,अपढमे? उ. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे।
१(क) मति-श्रुतज्ञान वाले के १९ दण्डक (१-११,१७वें से २४वें तक) (ख) मति-श्रुत-अवधिज्ञान वाले के १६ दण्डक (१-११, २०वें से २४वें
तक) (ग) मनःपर्यवज्ञान वाले का एक दण्डक २१ वा,
२(क) नारकों, का १ दण्डक, भवनवासी के १० दण्डक, २०वें दण्डक से
चौबीस दण्डक तक ५ दण्डक, इस प्रकार १६ दण्डक मनयोगी के हैं। (ख) पांच स्थावर के पांच दण्डकों का निषेध होने पर १९ दण्डक
वचनयोगी के हैं। (ग) काययोगी के २४ दण्डक हैं।