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________________ प्रथम-अप्रथम अध्ययन २६७ प. णाणी णं भंते ! जीवा णाणभावेणं किं पढमा, अपढमा? उ. गोयमा ! पढमा वि,अपढमा वि। दं.१-११,१७-२४.एवं एगेंदियवज्जा जाव वेमाणिया, सिद्धा-पढमा, नो अपढमा। आभिणिबोहियणाणी जाव मणपज्जवणाणीणं एगत्त पुहत्तेण वि एवं चेव। णवरं-जस्स जं अत्थि। केवलणाणी जीवे, मणुस्से, सिद्धे एगत्त पुहत्तेणं-पढमा, नो अपढमा। प. अण्णाणी णं भंते ! जीवे अण्णाणभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे। दं.१-२४. एवं नेरइए जाव वेमाणिए। प्र. भन्ते ! ज्ञानी जीव ज्ञानी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम भी है और अप्रथम भी है। द. १-११, १७-२४. इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं है। आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्याय ज्ञानी एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा इसी प्रकार हैं। विशेष-यह है जिस जीव के जितने ज्ञान हों, उतने कहने चाहिए। केवलज्ञानी जीव, मनुष्य और सिद्ध एकवचन बहुवचन की अपेक्षा प्रथम है, अप्रथम नहीं है। प्र. भन्ते ! अज्ञानी जीव अज्ञान भाव से प्रथम है या अप्रथम है? एवं मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगणाणी य। पुहत्तेण वि एवं चेव। १०. जोग दारंप. सजोगी णं भंते ! जीवे सजोगीभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे,अपढमे। एवं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी वि। णवरं-जस्स जं अस्थिर। प. अजोगीणं भंते!जीवे अजोगीभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! पढमे, नो अपढमे। मणुस्से, सिद्धे वि एवं चेव। पुहत्तेण वि एवं चेव। ११. उवओग दारंप. सागारोवउत्ते णं भंते ! जीवे सागारोवउत्तभावेणं किं पढमे,अपढमे? उ. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अषढमे। दं.१-२४. एवं नेरइए जाव वेमाणिए। उ. गौतम ! वह प्रथम नहीं, अप्रथम है। दं.१-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी है। बहुवचम की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। १०. जोग द्वार प्र. भन्ते ! सयोगी जीव सयोगी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है। इसी प्रकार मनयोगी, वचनयोगी और कायगोगी भी है। विशेष-यह है कि जिस जीव के जितने योग हों उतने कहने चाहिए। प्र. भन्ते ! अयोगी जीव अयोगी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है। मनुष्य और सिद्ध भी इसी प्रकार है। बहुवचन की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। ११. उपयोग द्वारप्र. भन्ते ! साकारोपयुक्त जीव साकारोपयुक्त भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। सिद्ध भी इसी प्रकार है। वहुवचन की अपेक्षा सभी जीव और २४ दण्डक प्रथम भी है और अप्रथम भी है। प्र. भन्ते ! अनाकारोपयुक्त जीव अनाकारोपयुक्त भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है। सिद्धे वि एवं चेव, पुहत्तेण सव्वे पढमा वि, अपढमा वि। प. अणागारोवउत्ते णं भंते ! जीवे अणागारोवउत्तभावेणं किं पढमे,अपढमे? उ. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे। १(क) मति-श्रुतज्ञान वाले के १९ दण्डक (१-११,१७वें से २४वें तक) (ख) मति-श्रुत-अवधिज्ञान वाले के १६ दण्डक (१-११, २०वें से २४वें तक) (ग) मनःपर्यवज्ञान वाले का एक दण्डक २१ वा, २(क) नारकों, का १ दण्डक, भवनवासी के १० दण्डक, २०वें दण्डक से चौबीस दण्डक तक ५ दण्डक, इस प्रकार १६ दण्डक मनयोगी के हैं। (ख) पांच स्थावर के पांच दण्डकों का निषेध होने पर १९ दण्डक वचनयोगी के हैं। (ग) काययोगी के २४ दण्डक हैं।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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