SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २६८ ) द.१-२४.एवं नेरइए जाव वेमाणिए। स पुहत्तेण विएवं चेव। प. सागारोवउत्ते णं भंते ! सिद्धे सिद्धभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! पढमे, नो अपढमे, एवं अणागारोवउत्तेवि। पुहत्तेण वि एवं चेव। १२. वेय दारं प. सवेदगे णं भंते !जीवे सवेदगभावेणं किं पढमे अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे। दं.१-२४.एवं नेरइए जाव वेमाणिए। । द्रव्यानुयोग-(१) ) दं.१-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यंत जानना चाहिए। बहुवचन का कथन भी इसी प्रकार है। प्र. भन्ते ! साकारोपयुक्त सिद्ध सिद्धभाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम है, अप्रथम नहीं है। अनाकारोपयुक्त भी इसी प्रकार है। बहुवचन की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। १२. वेद द्वार प्र. भन्ते ! सवेदक जीव सवेदक भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है। द.१-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-जिसके जो वेद हो वह कहना चाहिए। बहुवचन की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। इसी प्रकार स्त्री वेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद में भी एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा कथन करना चाहिए। प्र. भन्ते ! अवेदक जीव अवेदकभाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! वह कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है। मनुष्य का कथन भी इसी प्रकार है। सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं है। बहुवचन की अपेक्षा जीव और मनुष्य प्रथम भी है और अप्रथम भी है। सिद्ध प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं। १३. शरीर द्वारप्र. भन्ते ! सशरीरी जीव सशरीर भाव से प्रथम है या अप्रथम है ? णवर-जस्स जो वेदो अत्थि। पुहत्तेण वि एवं चेव। एवं इत्थिवेए, पुरिसवेए,णपुंसगवेए वि एगत्त-पुहत्तेणं। प. अवेदेणं णं भंते !जीवे अवेदभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे, एवं मणुस्से वि, सिद्धे पढमे, नो अपढमे। पुहत्तेणं जीवा मणुस्सा य पढमा वि अपढमा वि। सिद्धा पढमा, नो अपढमा। १३. सरीर दारंप. ससरीरी णं भंते ! जीवे ससरीरभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे। एवं ओरालियसरीरीजाव कम्मगसरीरी। णवर-जस्स जं अस्थि सरीर। प. आहारगसरीरी णं भंते ! जीवे आहारगसरीरभावेणं किं पढमे,अपढमे? उ. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे। एवं मणुस्से वि। पुहत्तेण जीवा मणुस्सा य पढमा वि अपढमा वि, उ. गौतम ! वह प्रथम नहीं है, अप्रथम है। इसी प्रकार औदारिक शरीरी से कार्मण शरीरी पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-जिसके जो शरीर हो वह कहना चाहिए। प्र. भन्ते ! आहारकशरीरी जीव आहारकशरीरी भाव से प्रथम है या अप्रथम है। उ. गौतम ! कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है। मनुष्य का कथन भी इसी प्रकार है। बहुवचन की अपेक्षा जीव और मनुष्य प्रथम भी है और अप्रथम भी है। प्र. भन्ते ! अशरीरी जीव अशरीरी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम है, अप्रथम नहीं है। प. असरीरी णं भंते ! जीवे असरीरीभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! पढमे, नो अपढमे, १(क) देवताओं के १३ दंडकों में केवल दो वेद-स्त्री वेद और पुरुष वेद हैं। (ख) नरक का एक दंडक,पांच स्थावर के ५ दंडक और तीन विकलेन्द्रिय के ३ दंडक इन नौ दंडकों में एक नपुंसक वेद है। (ग) तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य इन दो दंडकों में तीनों वेद हैं। २(क) औदारिक शरीर १० दण्डक में (१२ से २१) (ख) वैक्रिय शरीर १७ दण्डक में (१-११,१५,२०-२४) (ग) आहारक शरीर एक दंडक में (२१) (घ) तैजस कार्मण शरीर २४ दण्डक में।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy