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________________ २६६ दं.१-२४.एवं नेरइए जाव वेमाणिए। पुहत्तेण विएवं चेव, प. संजयासंजएणं भंते ! जीवे संजयासंजयभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे। दं.२०-२१.एवं पंचिंदिय-तिरिक्खजोणिए मणुस्से य दं.२०-२१. पुहत्तिया जीवा पंचिन्दिय-तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा पढमा वि, अपढमा वि। नो संजए, नो असंजए, नो संजयासंजए जीवे, सिद्धे पढमे, नो अपढमे। पुहत्तेण वि एवं चेव। ८. कसाय दारंप. सकसाए णं भंते! सकसायभावेणं किं पढमे, अपढमे? । द्रव्यानुयोग-(१)) दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। बहुवचन की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। प्र. भन्ते ! संयतासंयत जीव संयतासंयत भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! कदाचित् प्रथम है, कदाचित् अप्रथम है। दं.२०-२१. इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्य का कथन करना चाहिए। दं. २०-२१. अनेक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्य प्रथम भी हैं और अप्रथम भी हैं। नो संयत नो असंयत और नो संयतासंयत जीव और सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं है। बहुवचन की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। ८. कषाय द्वारप्र. भन्ते ! सकषायी जीव सकषाय भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। बहुवचन की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। प्र. भन्ते ! क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी जीव क्रोधकषायी भाव से यावत् लोभकषायी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे। दं.१-२४. एवं नेरइए जाव वेमाणिए। पुहत्तेण वि एवं चेव। प. कोहकसाएणं जाव लोभकसाए णं भंते ! जीवे कोहकसायभावेणं जाव लोभकसायभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे। दं.१-२४. एवं नेरइए जाव वेमाणिए। पुहत्तेण वि एवं चेव। प. अकसाए णं भंते ! जीवे अकसायभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे। एवं मणुस्से वि। प. अकसाए णं भंते ! सिद्धे अकसायभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! पढमे, नो अपढमे। पुहत्तेणं जीवा मणुस्सा पढमा वि अपढमा वि। उ. गौतम ! प्रथभ नहीं, अप्रथम है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। बहुवचन की अपेक्षा भी इसी प्रकार है। प्र. भन्ते ! अकषायी जीव अकषायी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है। इसी प्रकार मनुष्य का कथन है। प्र. भन्ते ! अकषायी सिद्ध अकषायी भाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम है, अप्रथम नहीं है। बहुवचन की अपेक्षा अकषायी जीव, मनुष्य प्रथम भी है और अप्रथम भी है। सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं है। ९. ज्ञान द्वारप्र. भन्ते ! ज्ञानी जीव ज्ञानी भाव से प्रथम है या अप्रथम है ? उ. गौतम ! कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है। दं. १-११, १७-२४. इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं है। सिद्धा पढमा नो अपढमा। ९. णाण दारंप. णाणी णं भंते ! जीवे णाणभावेणं किं पढमे,अपढमे? उ. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे। दं.१-११,१७-२४.एवं एगिंदियवज्जं जाव वेमाणिए। सिद्धे पढमे नो अपढमे।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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