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संज्ञी अध्ययन : आमुख
“संझिनः समनस्काः '(तत्त्वार्थसूत्र २.२५) के अनुसार जो मन वाले जीव हैं उन्हें संज्ञी कहते हैं।
संज्ञी जीवों में हिताहित का विचार करने का सामर्थ्य होता है। मन के सद्भाव में वे शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण कर सकते हैं। जिसके संज्ञा होती है उसे भी संज्ञी कहा जा सकता है।
संज्ञा के विविध रूप हैं। नाम को भी संज्ञा कहते हैं, ज्ञान को भी संज्ञा कहते हैं तथा आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह को भी संज्ञा कहा गया है।
प्रज्ञापना सूत्र के भाषा पद में जो सण्णी (संज्ञी) शब्द प्रयुक्त हुआ है वह शब्द संकेत को ग्रहण करने वाले के लिए हुआ है। जो बालक शब्द संकेत से अर्थ या पदार्थ को नहीं जानता वह भी एक प्रकार का असंज्ञी ही है। यहाँ पर संज्ञी शब्द संज्ञा के इन तीनों अर्थों से पृथक् अर्थ रखता है। मन वाले जीव ही यहाँ संज्ञी शब्द से अभीष्ट हैं। तिर्यञ्च एवं मनुष्य गति के समनस्क संज्ञी जीव प्रायः गर्भ से पैदा होते हैं। नरक एवं देवगति के समनस्क संज्ञी जीवों का जन्म उपपात से होता है, वे गर्भ से पैदा नहीं होते।
पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय के जीव असंज्ञी होते हैं क्योंकि वे मन से रहित होते हैं। इसी प्रकार सभी विकलेन्द्रिय भी असंज्ञी होते हैं।
पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी। इनमें नैरयिक जीव, भवनपति देव एवं वाणव्यन्तर देव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी। देव और नरक गति में अन्य पंचेन्द्रिय असंज्ञी जीव भी उत्पन्न होते हैं अतः पूर्वभव की अपेक्षा से वे अल्पकाल तक असंज्ञी रहते हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय संज्ञी एवं असंज्ञी दोनों प्रकार के होते हैं। वे सम्मूर्छिम होने पर असंज्ञी एवं गर्भज होने पर संज्ञी होते हैं।
इसी प्रकार मनुष्य भी सम्मूर्छिम होने पर असंज्ञी एवं गर्भज होने पर संज्ञी होते हैं। मनुष्य जब कषायरहित हो जाते हैं तब तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में नोसंज्ञी एवं नोअसंज्ञी होते हैं। अर्थात् वे संज्ञित्व एवं असंज्ञित्व से परे होते हैं। मन होते हुए भी वे मन का उपयोग नहीं करते, अतः नोसंज्ञी होते हैं तथा एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रियों की भांति वे मन रहित नहीं होते, अतः नोअसंज्ञी होते हैं। इसी प्रकार सिद्ध जीवन संज्ञी होते हैं और न असंज्ञी वे नोसंज्ञी एवं नोअसंज्ञी होते हैं।
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