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जीव अध्ययन
उज्झर-निज्झर - चिल्लल-पल्लल-वप्पिणा परिग्गहिया भवंति,
अगड-तडाग- दह-नदीओ वावी - पुक्खरिणी-दीहिया गुंजालिया सरा सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ बिलपतियाओ परिग्गहियाओ भवति,
आराम-उज्जाणा काणणा वणाई वणसंडाई वणराईओ परिग्गहियाओ भवति,
देवउल सभा-पथा शुभा खाइय परिखाओ परिग्गहियाओ भवति, पागारऽट्टालग-चरिया-दार गोपुरा परिग्गहिया
भवति,
पासाद घर-सरण-लेण आवणा परिग्गहिया भवति,
सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहा परिग्गहिया भवंति,
सगड़-रह- जाण - जुग्ग-गिल्लि थिल्लि सीय संदमाणियाओ परिग्गहियाओ भवंति,
लोही-लोहकडाह कडच्या परिग्गहिया भवति,
भवणा परिग्गहिया भवंति,
देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ आसण-सयण- खंड-भंड- सचित्तअचित्त मीसयाई दव्वाई परिग्गहियाई भवति । से तेणट्ठेण गोयमा ! एवं बुच्चइ“पंचिंदियतिरिक्खजोणिया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा।"
द. २१. जहा तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा वि भाणियव्या
दं. २२-२४ वाणमंतर जोइसिय बेमाणिया जहा भवणवासी तहा नेयव्वा ।
-विया. स. ५, उ. ७, सु. ३०-३६
१०४. चउवीसदंडएसु सक्काराइ विणयभाव परूवणं
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प. दं. १. अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं सक्कारे इवा, सम्माणे इ या किइकम्मे था अब्भुट्ठाणे इ वा अंजलिपग्गहे इ वा आसणाभिग्गहे इ वा आसणाणुप्पयाणे इ वा, एयस्स पच्चुग्गच्छणया ठियस्स पज्जुवासणया, गच्छंतस्स पडिससाहणया ?
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उ. गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे ।
प. ६. २. अस्थि णं भंते! असुरकुमाराणं सकारे इ था, सम्माणे इ वा जाव गच्छंतस्स पडिसंसाहणया ?
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उज्झर (जलप्रपात) निर्झर (झरना) चिल्लत (कीचड़ युक्त जलाशय) पल्लव (आनन्ददायकजलाशय) तथा वप्रीण (क्यारियों वाला जलस्थान) परिगृहीत किये हुए हैं।
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कूप, तड़ाग (तालाब), ग्रह (झील) नदी, वापी (बावड़ी) पुष्करिणी (कमलों से युक्त बावड़ी) दीर्घिका (हीज) सरोवर, सर पंक्ति, सरसरपंक्ति एवं बिलपंक्ति को परिगृहीत किये हुए हैं,
आराम (गृह उद्यान), उद्यान, (सार्वजनिक बगीचा) कानन, वन, वनखण्ड वनराजि को परिगृहीत किये हुए हैं। देवकुल (देवमन्दिर), सभा, आश्रम, प्रपा (प्याऊ) स्तूप, खाई, परिखा को परिगृहीत किये हुए हैं,
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प्राकार (किला), अड्डाक (अटारी) चरिका द्वार, गोपुर (नगरद्वार) को परिगृहीत किये हुए हैं,
प्रासाद ( राजमहल), घर, सरण (झोंपड़ा) लयन (पर्वतगृह), आपण (दुकान) को परिगृहीत किये हुए हैं। शृंगाटक (त्रिकोण मार्ग), त्रिक (तिराहा), चतुष्क (चौराहा) चत्वर (चौक) चतुर्मुख (चार द्वारों वाला मकान या देवालय), महापथ को परिगृहीत किये हुये हैं।
शकट (गाड़ी), रथ यान (वाहन), युग्य ( पालखी) गिल्ली (अम्बाड़ी) दिल्ली (घोड़े का पतान), शिविका (डोली) स्यन्दमानिका को परिगृहीत किये हुए हैं।
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लोही (लोहे की डेगची), लोहे की कड़ाडी, कुड़छी आदि को परिगृहीत किये हैं,
भवनों को परिगृहीत किये हुए हैं।
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देव, देवियों, मनुष्य, मनुष्यनियों तिर्यञ्च तिर्यञ्चनियों, आसन, शयन, खण्ड, (क्षेत्रखंड) भाण्ड (बर्तन) एवं सचित्त अचित्त और मिश्र द्रव्यों को परिगृहीत किये हुए हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'पंञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव आरम्भ परिग्रह से युक्त हैं, किन्तु अनारम्भी अपरिग्रही नहीं है।"
दं. २१. जिस प्रकार तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय जीवों के लिए कहा, उसी प्रकार मनुष्यों के लिए भी कहना चाहिए।
दं. २२- २४. जिस प्रकार भवनवासी देवों के लिए कहा, वैसे ही वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए भी कहना चाहिए।
१०४. चौबीसदंडकों में सत्कारादि विनयभाव का प्ररूपण
प्र. दं. १. भंते ! क्या नारकजीवों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म (वन्दन), अभ्युत्थान, अंजलिप्रग्रह, आसनाभिग्रह, आसनानुप्रदान या आते हुए के सम्मुख (स्वागतार्थ) जाना, बैठे हुए की सेवा (पर्युपासना करना, उठ कर जाते हुए के पीछे चलना इत्यादि विनय भक्ति है ?
उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
प्र. ६. २. भंते! असुरकुमारों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान यावत् जाते हुए के पीछे जाना आदि विनयभक्ति है ?