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जीव अध्ययन उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं दो
सागरोवमसहस्साई साइरेगाई। थावरस्स संचिट्ठणा वणस्सइकालो। णोतसा-णोथावरा साइअपज्जवसिया।
-जीवा. पडि.९, सु.२४३ १२४. परित्ताइ जीवाणं कायट्ठिई परूवणं
प. परित्तेणं भंते ! परित्तेत्ति कालओ केवचिर होइ?
उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो
हजार सागरोपम तक रहता है। स्थावर, स्थावर के रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रहता है। नोत्रस-नोस्थावर सादि अपर्यवसित हैं।
उ. गोयमा ! परित्ते दुविहे पण्णत्ते,तं जहा
१. कायपरित्तेय २. संसारपरित्ते य। प. कायपरित्ते णं भंते ! कायपरित्ते त्ति कालओ केवचिरं
होइ?
उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो
असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ।
प. संसारपरित्ते णं भंते ! संसार परित्ते त्ति कालओ
केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतकालं
जाव अवड्ढे पोग्गलपरियट्ट देसूणं। प. अपरित्ते णं भंते ! अपरित्ते त्ति कालओ केवचिर होइ?
१२४. परीत आदिजीवों की कायस्थिति का प्ररूपण
प्र. भंते ! परीत (परिमित करने वाला) जीव कितने काल तक
परीतरूप में रहता है? उ. गौतम ! परीत दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा
१. कायपरीत, २. संसारपरीत। प्र. भंते ! कायपरीत कितने काल तक कायपरीत रूप में
रहता है? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल
तक, (अर्थात्) असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल तक
रहता है। प्र. भंते ! संसारपरीत जीव कितने काल तक संसारपरीत रूप
में रहता है ? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल
तक यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्तन पर्यंत रहता है। प्र. भंते ! अपरीत जीव कितने काल तक अपरीत रूप में
रहता है? उ. गौतम ! अपरीत दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा
१. काय अपरीत, २. संसार अपरीत। प्र. भंते ! काय अपरीत कितने काल तक काय अपरीत रूप में
रहता है? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल ___अर्थात् अनन्त काल तक रहता है। प्र. भंते ! संसार अपरीत कितने काल तक संसार अपरीत रूप
में रहता है? उ. गौतम ! संसार अपरीत दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा
१. अनादि अपर्यवसित,
२. अनादि सपर्यवसित। प्र. भंते ! नोपरीत नोअपरीत कितने काल तक नोपरीत
नोअपरीत रूप में रहता है ? उ. गौतम ! वह सादि अपर्यवसित काल तक रहता है।
उ. गोयमा ! अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते,तं जहा
१. कायअपरित्ते य, २. संसारअपरित्ते य। प. कायअपरित्ते णं भंते ! कायअपरित्ते त्ति कालओ
केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं
वणप्फइकालो। प. संसारअपरित्ते णं भंते ! संसार अपरित्ते त्ति कालओ
केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! संसार अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा
१. अणाइए अपज्जवसिए,
२. अणाईए सपज्जवसिए। प. णोपरित्ते णोअपरित्ते णं भंते ! णो परित्ते णो अपरित्ते
त्तिकालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! साईए अपज्जवसिए।'
-पण्ण. प.१८,सु.१३७६-१३८२ १२५. भवसिद्धिया जीवाणं कायट्ठिई परूवणं
प. भवसिद्धिए णं भंते ! भवसिद्धिए त्ति कालओ केवचिरं
होइ? उ. गोयमा !अणाईएसपज्जवसिए।
१२५. भवसिद्धिकादि जीवों की कायस्थिति का प्ररूपण
प्र. भंते ! भवसिद्धिक (भव्य) जीव कितने काल तक
भवसिद्धिक रूप में रहता है ? उ. गौतम ! (वह) अनादि सपर्यवसित काल तक रहता है।
१. जीवा. पडि.९, सु.२३८