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________________ २२५ जीव अध्ययन उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई साइरेगाई। थावरस्स संचिट्ठणा वणस्सइकालो। णोतसा-णोथावरा साइअपज्जवसिया। -जीवा. पडि.९, सु.२४३ १२४. परित्ताइ जीवाणं कायट्ठिई परूवणं प. परित्तेणं भंते ! परित्तेत्ति कालओ केवचिर होइ? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार सागरोपम तक रहता है। स्थावर, स्थावर के रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रहता है। नोत्रस-नोस्थावर सादि अपर्यवसित हैं। उ. गोयमा ! परित्ते दुविहे पण्णत्ते,तं जहा १. कायपरित्तेय २. संसारपरित्ते य। प. कायपरित्ते णं भंते ! कायपरित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ। प. संसारपरित्ते णं भंते ! संसार परित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतकालं जाव अवड्ढे पोग्गलपरियट्ट देसूणं। प. अपरित्ते णं भंते ! अपरित्ते त्ति कालओ केवचिर होइ? १२४. परीत आदिजीवों की कायस्थिति का प्ररूपण प्र. भंते ! परीत (परिमित करने वाला) जीव कितने काल तक परीतरूप में रहता है? उ. गौतम ! परीत दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. कायपरीत, २. संसारपरीत। प्र. भंते ! कायपरीत कितने काल तक कायपरीत रूप में रहता है? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक, (अर्थात्) असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल तक रहता है। प्र. भंते ! संसारपरीत जीव कितने काल तक संसारपरीत रूप में रहता है ? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्तन पर्यंत रहता है। प्र. भंते ! अपरीत जीव कितने काल तक अपरीत रूप में रहता है? उ. गौतम ! अपरीत दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. काय अपरीत, २. संसार अपरीत। प्र. भंते ! काय अपरीत कितने काल तक काय अपरीत रूप में रहता है? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल ___अर्थात् अनन्त काल तक रहता है। प्र. भंते ! संसार अपरीत कितने काल तक संसार अपरीत रूप में रहता है? उ. गौतम ! संसार अपरीत दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. अनादि अपर्यवसित, २. अनादि सपर्यवसित। प्र. भंते ! नोपरीत नोअपरीत कितने काल तक नोपरीत नोअपरीत रूप में रहता है ? उ. गौतम ! वह सादि अपर्यवसित काल तक रहता है। उ. गोयमा ! अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते,तं जहा १. कायअपरित्ते य, २. संसारअपरित्ते य। प. कायअपरित्ते णं भंते ! कायअपरित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो। प. संसारअपरित्ते णं भंते ! संसार अपरित्ते त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! संसार अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा १. अणाइए अपज्जवसिए, २. अणाईए सपज्जवसिए। प. णोपरित्ते णोअपरित्ते णं भंते ! णो परित्ते णो अपरित्ते त्तिकालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! साईए अपज्जवसिए।' -पण्ण. प.१८,सु.१३७६-१३८२ १२५. भवसिद्धिया जीवाणं कायट्ठिई परूवणं प. भवसिद्धिए णं भंते ! भवसिद्धिए त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा !अणाईएसपज्जवसिए। १२५. भवसिद्धिकादि जीवों की कायस्थिति का प्ररूपण प्र. भंते ! भवसिद्धिक (भव्य) जीव कितने काल तक भवसिद्धिक रूप में रहता है ? उ. गौतम ! (वह) अनादि सपर्यवसित काल तक रहता है। १. जीवा. पडि.९, सु.२३८
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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