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________________ ( २२४ ।। १२०. तस थावराणं कायट्टिई परूवणं प. थावरेणं भंते ! थावरे त्ति कालओ केवचिर होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतकालं अणंताओ उस्सप्पिणीओ अवसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोया असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, तेणं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो। द्रव्यानुयोग-(१)) १२०. त्रस और स्थावरों की कायस्थिति का प्ररूपण प्र. भंते ! स्थावर जीव स्थावर के रूप में कितने काल तक रहता है? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनंतकाल तक अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल, क्षेत्र से अनन्त लोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्तन अर्थात् आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने पुद्गलपरावर्तन पर्यन्त रहता है। प्र. भंते !त्रस जीव त्रस के रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट से असंख्यात काल अर्थात् असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल, क्षेत्र से असंख्यात लोक प्रमाण है। (तेउकाय वाउकाय की अपेक्षा) प. तसे णं भंते ! तसे त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा !जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जकालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओ अवसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ.असंखेज्जा लोगा। -जीवा. पडि,१,सु.४३ १२१. पज्जत्ताइ जीवाणं कायट्टिई परूवणं प. पज्जत्तएणं भंते ! पज्जत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं साइरेग। प. अपज्जत्तए णं भंते ! अपज्जत्तए त्ति कालओ केबचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं। १२१. पर्याप्तादि जीवों की कायस्थिति का प्ररूपण प्र. भंते ! पर्याप्तक जीव पर्याप्तक रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपम शतपृथक्त्व तक रहता है। प्र. भंते ! अपर्याप्तक जीव अपर्याप्तक रूप में कितने तक रहता है? उ. गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी ____ अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। प्र. भंते ! नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव नोपर्याप्तक नो अपर्याप्तक रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. गौतम ! सादि अपर्यवसित काल तक रहता है। प. णोपज्जत्तए णोअपज्जत्तए णं भंते ! णो पज्जत्तए णो अपज्जत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! साईए अपज्जवसिए। -पण्ण. प.१८, सु. १३८३-१३८५ १२२. सुहुभाई जीवाणं कायट्ठिई परूवणं प. सुहुमे णं भंते ! सुहुमे त्ति कालओ केवचिर होइ? उ. गोयमा !जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो। प. बादरेणं भंते ! बादरे त्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओ ओसप्पिणीओ कालओ,खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागे। १२२. सूक्ष्मादि जीवों की कायस्थिति का प्ररूपण प्र. भंते ! सूक्ष्म जीव सूक्ष्म रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक रहता है। प्र. भंते ! बादर जीव बादर रूप में कितने काल तक रहता है? उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक अर्थात् कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल तथा क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र प्रमाण है। प्र. भंते ! नो सूक्ष्म नो बादर जीव नो सूक्ष्म नो बादर रूप में कितने काल तक रहता है? उ. गौतम ! सादि अपर्यवसित काल तक रहता है। प. णो सुहुम णो बायरे णं भंते ! णो सुहुम णो बायरे त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! साईए अपज्जवसिए। -पण्ण.प.१८, सु. १३८६-१३८८ १२३. तसाई जीवाणं कायट्टिई परूवणं प. तसे णं भंते ! तसेत्ति कालओ केवचिर होइ? १२३. त्रसादि जीवों की कायस्थिति का प्ररूपण प्र. भंते ! बस जीव त्रस के रूप में कितने काल तक रहता है ? १. यहाँ त्रस की कायस्थिति में तेउकाय वायुकाय भी शामिल गिने गये हैं। २. जीवा, पडि, ९, सु. २३९ ३. जीवा. पडि. ९ स. २४०
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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