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________________ २२६ द्रव्यानुयोग-(१) प. अभवसिद्धिए णं भंते ! अभवसिद्धिए त्ति कालओ प्र. भंते ! अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव कितने काल तक केवचिरं होइ? अभवसिद्धिकरूप में रहता है? उ. गोयमा ! अणाईए अपज्जवसिए। उ. गौतम ! (वह) अनादि अपर्यवसित काल तक रहता है। प. णोभवसिद्धिए णोअभवसिद्धिएणं भंते ! णोभवसिद्धिए प्र. भंते ! नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक जीव कितने काल __णो अभवसिद्धिए त्ति कालओ केवचिर होइ? तक नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक रूप में रहता है ? उ. गोयमा!साईए अपज्जवसिए। उ. गौतम ! (वह) सादि अपर्यवसित काल तक रहता है। -पण्ण. प.१८,सु.१३९२-१३९४ १२६. नवविह विवक्खया एगिंदियाइ जीवाणं अन्तरकाल- १२६. नव प्रकार की विवक्षा से एकेन्द्रियादि जीवों के अंतरकाल परूवणं का प्ररूपणप. एगिदियस्सणं भंते ! अंतर कालओ केवचिर होइ? प्र. भंते ! एकेन्द्रिय का काल की अपेक्षा अन्तर कितना है ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दो । उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात वर्ष अधिक सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमब्भहियाई। दो हजार सागरोपम है। प. बेइंदियस्सणं भंते ! अंतरं कालो केवचिर होइ? प्र. भंते ! द्वीन्द्रिय का काल की अपेक्षा अन्तर कितना है ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। वणस्सइकालो। एवं तेइदियस्सविरे चउरिंदियस्सवि णेरइयस्सवि५ इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पञ्चेन्द्रियपंचेंदियतिरिक्खजोणियस्सवि मणूसस्सवि तिर्यञ्च योनिक, मनुष्य और देव सबका अंतर इतना ही देवस्सवि-सव्वेसिं एवं अंतरं भाणियव्वं। कहना चाहिए। प. सिद्धस्स णं भंते ! अंतर कालओ केवचिरं होइ? प्र. भंते ! सिद्ध का काल की अपेक्षा अंतर कितना है ? - उ. गोयमा ! साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतर। उ. गौतम ! सादि अपर्यवसित होने से उनका अन्तर नहीं है। -जीवा. पडि. ९, सु. २५६ १२७. जीवाणं दसविह विवक्खया अन्तर काल-परूवणं- १२७. दस प्रकार की विवक्षा से जीवों के अंतरकाल का प्ररूपण प. पुढविकाइयस्स णं भंते ! अंतर कालओ केवचिर होइ? प्र. भंते ! पृथ्वीकायिक का काल की अपेक्षा अंतर कितना है? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। वणस्सइकालो। एवं आउकाइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स। इसी प्रकार अकायिक, तेजस्कायिक,और वायुकायिक का भी अन्तर जानना चाहिए। प. वणस्सइकाइयस्स णं भंते ! अंतर कालओ केवचिर प्र. भंते! वनस्पतिकायिक का काल की अपेक्षा अंतर कितना होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उकृष्ट असंख्यात काल कालं जाव असंखेज्जा लोया। यावत् असंख्यात लोक प्रमाण है। बिय-तिय-चउरिंदिया पंचेंदियाणं एएसिं चउण्डंपि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन चारों का अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। प. अणिंदियस्स णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ? प्र. भंते ! अनिन्द्रिय का काल की अपेक्षा अंतर कितना है? उ. गोयमा ! साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतर। उ. गौतम ! सादि अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। १. जीवा. पडि.९,सु.२४२ २. उत्त. अ. ३६, गा. १३४ ३. उत्त. अ. ३६, गा.१४३ उत्त. अ. ३६, गा.१५३ ५. उत्त. अ.३६, गा. १६८ ६. (क) उत्त. अ. ३६, गा. १७७ (ख) उत्त. अ. ३६, गा. १८६ (ग) उत्त. अ.३६,गा. १९३ ७. उत्त. अ.३६, गा. २०२ ८. उत्त. अ. ३६, गा. २४६
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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