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जीव अध्ययन
उ. गोयमा ! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला, सुभे
पोग्गलपरिणामे, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'असुरकुमाराणं उज्जोए, नो अंधकारे।' दं.३-११.एवं जाव थणियकुमाराणं।
दं. १२-१८. पुढविकाइया जाव तेइंदिया जहा नेरइया।
प. दं.१९.चउरिंदियाणं भंते ! किं उज्जोए,अंधकारे?
उ. गोयमा ! उज्जोए वि, अंधकारे वि।
प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
'चउरिंदियाणं उज्जोए वि, अंधकारे वि?'
उ. गोयमा ! चउरिंदियाणं सुभासुभा पोग्गला, सुभासुभे
पोग्गलपरिणामे, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'चउरिंदियाणं उज्जोए वि, अंधकारे वि।'
- २११ । उ. गौतम ! असुरकुमारों के शुभ पुद्गल होते हैं और शुभ
पुद्गल परिणाम होता है, इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'असुरकुमारों के उद्योत होता है, अंधकार नहीं होता है। दं. ३-११. इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त जानना चाहिए। दं. १२-१८. जिस प्रकार नैरयिक जीवों के (उद्योत अंधकार के) विषय में कथन किया, उसी प्रकार
पृथ्वीकायिक जीवों से त्रीन्द्रिय जीवों पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. दं.१९. भंते ! चतुरिन्द्रिय जीवों के क्या उद्योत या अंधकार
होता है? उ. गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीवों के उद्योत भी होता है और
अंधकार भी होता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
'चतुरिन्द्रिय जीवों के उद्योत भी होता है और अंधकार भी
होता है ?, उ. गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीवों के शुभ अशुभ पुद्गल होते हैं
और शुभ अशुभ पुद्गल परिणाम होता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'चतुरिन्द्रिय जीवों के उद्योत भी होता है और अंधकार भी होता है। दं. २०-२१. इसी प्रकार मनुष्यों पर्यन्त जानना चाहिए। दं. २२-२४. जिस प्रकार असुरकुमारों (उद्योत-अंधकार) के विषय में कहा उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और
वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिए। १०६. चौवीसदंडकों में समयादि के प्रज्ञान का प्ररूपण
प्र. दं.१. भंते ! क्या वहां (नरकक्षेत्र में) रहे हुए नैरयिकों को
इस प्रकार का प्रज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) होता है, यथायह समय, आवलिका यावत् उत्सर्पिणी काल या अवसर्पिणी
काल है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (नैरयिकों को समयादि का
प्रज्ञान नहीं होता) प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
'नरकों में रहे हुए नैरयिकों को समय, आवलिका यावत्
उत्सर्पिणी-काल का प्रज्ञान नहीं होता है?' उ. गौतम ! यहीं (मनुष्यलोक में ही) उन (समयादि) का मान
हैं, यही उनका प्रमाण है, इसीलिए यही उनका ऐसा प्रज्ञान होता है, यथायह समय है यावत् यह उत्सर्पिणीकाल है। (किन्तु नरक में न तो समयादि का मान है, न प्रमाण है और न ही प्रज्ञान है) इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि
दं.२०-२१. एवं जाव मणुस्साणं। दं. २२-२४. वाणमंतर-जोइस वेमाणिया जहा असुरकुमारा।
-विया.स.५, उ.९, सु.३-९
१०६. चउवीसदंडएसु समयाइ पण्णाण परूवणं
प. दं. १. अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं एवं
पण्णायइ,तं जहासमया इ वा, आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा
उस्सप्पिणी इवा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे।
प. सेकेणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ'नेरइयाणं तत्थगयाणं नो एवं पण्णायए,तं जहा
समया इवा, आवलिया इ वा जाव उस्सप्पिणी इवा? उ. गोयमा ! इहं तेसिं माणं, इह तेसिं पमाणं इह तेसिं एवं
पण्णायइ.तंजहा
समया इ वा जाव उस्सपिणी इ वा।
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से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ