________________
द्रव्यानुयोग-(१)] उ. गौतम ! अजीवद्रव्य जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु
जीवद्रव्य अजीवद्रव्य के परिभोग में नहीं आते हैं,
( १८८ उ. गोयमा ! जीवदव्वाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए
हव्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए
हव्वमागच्छंति। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"जीवदव्वाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए
हव्वमागच्छंति?" उ. गोयमा !जीवदव्वा णं अजीवदव्वा परियादियंति,
अजीवदव्वे परियादिइत्ता ओरालियं वेउव्वियं आहारगं तेयगं कम्मगं सोइंदिय जाव फासिंदिय मणजोगं वइजोगं कायजोगं आणापाणुत्तं च निव्वत्तयति।
प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि'अजीवद्रव्य जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं किन्तु जीवद्रव्य अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं ?
उ. गौतम ! जीवद्रव्य, अजीवद्रव्य को ग्रहण करते हैं,
अजीबद्रव्य (पुद्गल) को ग्रहण करके औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस् और कार्मण इन पांच शरीरों तथा श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शेन्द्रिय पर्यन्त पांच इन्द्रियों, मनोयोग, वचनयोग और काययोग तथा श्वासोच्छ्वास के रूप में निष्पन्न करते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'अजीवद्रव्य जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीवद्रव्य अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं।'
प्र. दं.१. भन्ते ! अजीवद्रव्य नैरयिकों के परिभोग में आते हैं या
नैरयिक अजीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं ?
से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जीवदव्वाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए
हव्वमागच्छति।" . प. द. १. नेरइयाणं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए
हव्वमागच्छंति, अजीवदव्वाणं नेरइया परिभोगत्ताए
हव्वमागच्छंति? उ. गोयमा ! नेरइयाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए
हव्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं नेरइया परिभोगत्ताए
हव्वमागच्छति। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"नेरइयाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हब्वमागच्छंति,
नो अजीवदव्वाणं नेरइय परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति?' उ. गोयमा ! नेरइए अजीवदव्वे परियादियंति
अजीवदब्वे परियादिइत्ता वेउव्विय-तेयग-कम्मग सोइंदिय जाव फासिंदिय, मणजोगं वइजोगं कायजोगं आणापाणुत्तं च निव्वत्तयंति।
उ. गौतम ! अजीव द्रव्य नैरयिकों के परिभोग में आते हैं, किन्तु
नैरयिक अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं।
से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'नेरइयाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति नो अजीवदव्वाणं नेरइया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति।' दं.२-२४.एवं जाव वेमाणिया, णवर-सरीर-इंदिय-जोगा भाणियव्वा जस्स जे अस्थि।
-विया. स.२५, उ. २, सु.४-६ ९३. जीव-चउवीसदंडएसु कामित्तं भोगित्तं अप्पबहुत्तय परूवणं-
प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
'अजीवद्रव्य नैरयिकों के परिभोग में आते हैं
किन्तु नैरयिक अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं ?' उ. गौतम ! नैरयिक अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं।
अजीवद्रव्यों को ग्रहण करके वैक्रिय तैजस और कार्मणशरीर के रूप में, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में, मनोयोग वचनयोग और काययोग तथा श्वासोच्छ्वास के रूप में निष्पन्न करते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि“अजीवद्रव्य नैरयिकों के परिभोग में आते हैं किन्तु नैरयिक अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं।" दं.२-२४. इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष-जिसके जितने शरीर, इन्द्रियाँ तथा योग हों, उसके
उतने (यथायोग्य) कहने चाहिए। ९३. जीव-चौबीसदंडकों में कामित्व भोगित्व और अल्पबहुत्व का .
प्ररूपणप्र. भन्ते ! जीव कामी हैं या भोगी हैं ? उ. गौतम ! जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
'जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं ?' उ. गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षा जीव कामी हैं।
प. जीवाणं भंते ! किं कामी? भोगी? उ. गोयमा ! जीवा कामी वि, भोगी वि। प. सेकेणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ
जीवा कामी वि भोगी वि? उ. गोयमा ! सोइंदिय-चक्विंदियाई पडुच्च कामी