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जीव अध्ययन
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एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए समाणे हीणे खंतीए-एवं मुत्तीए गुत्तीए अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं सच्चेणं तवेणं चियाए अकिंचणयाए बंभचेरवासेणं तयाणंतरं च णं हीणे हीणतराए खंतीए जाव हीणे हीणतराए बंभचेरवासेणं खलु एएणं कमेणं परिहीयमाणे परिहीयमाणे णट्टे खंतीए जावणठे बंभचेरवासेणं।
से जहा वा सुक्कपक्खस्स पाडिवयाचंदे अमावासाए चंदं पणिहाय अहिए वण्णेणं जाव अहिए मंडेलणं। तयाणंतरं च णं बिइयाचंदे पाडिवयाचंदं पणिहाय अहियतराए वण्णेणं जाव अहियतराए मंडेलणं। एवं खलु एएणं कमेणं-परिवुड्ढेमाणे जाव पुण्णिमाचंदे चाउद्दसिं चंदं पणिहाय पडिपुण्णे वण्णेणं जाव पडिपुण्णे मंडलेणं। एवामेव समणाउसो ! जो अम्हे निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए समाणे अहिए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं तयाणंतरं च णं अहियतराए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं।
इसी प्रकार हे आयुष्मन श्रमणों ! जो हमारा साधु या साध्वी यावत् प्रव्रजित होकर क्षान्ति क्षमा से हीन होता है, इसी प्रकार मुक्ति (निर्लोभता) गुप्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य वास से हीन होता है और उसके पश्चात् शान्ति से हीन यावत् ब्रह्मचर्यवास से हीन हीनतर होता जाता है इसी प्रकार इसी क्रम से हीन हीनतर होते हुए उसके क्षमा आदि गुण यावत् उसका ब्रह्मचर्यवास नष्ट हो जाता है। जैसे शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिक होता है, तदनंतर द्वितीया का चन्द्र प्रतिपदा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण मण्डल से अधिक अधिकतर होता है। इसी प्रकार इसी क्रम से बढ़ते हुए यावत् पूर्णिमा का चन्द्र चतुर्दर्शी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से परिपूर्ण होता है। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर क्षमा यावत् ब्रह्मचर्य से अधिक होता है, तदनंतर क्षमा यावत् ब्रह्मचर्यवास में अधिक वृद्धि करता जाता है। इसी प्रकार इसी क्रम से बढ़ते बढ़ते क्षमा यावत् ब्रह्मचर्य वास से परिपूर्णता को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार जीव वृद्धि और हानि को प्राप्त होते हैं।
१६. वस्त्र और जीवों की सादि सपर्यवसितादि का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या वस्त्र सादि-सान्त है? सादि-अनन्त है? अनादि
सान्त है? या अनादि-अनंत है?
उ. गौतम ! वस्त्र सादि-सान्त है, । शेष तीन भंगों का (वस्त्र में) निषेध करना चाहिए। प्र. भंते ! जिस प्रकार वस्त्र सादि-सान्त है, सादि-अनंत नहीं है,
अनादि-सान्त नहीं है और अनादि-अनंत नहीं है क्या वैसे ही जीव सादि-सान्त है यावत् अनादि-अनंत है?
एवं खलु एएणं कमेणं-परिवड्ढेमाणे परिवड्ढेमाणे जाव पडिपुण्णे बंभचेरवासेणं, एवं खलु जीवा वड्ढंति वा हायंति वा।
-णाया.सु. १, अ. १०,सु. ४-६ १६. वत्थस्स यजीवाण य साइ-सपज्जवसियाइ परूवणं प. वत्थे णं भंते ! किं साइए सपज्जवसिए साइए
अपज्जवसिए, अणाइए सपज्जवसिए अणाइए
अपज्जवसिए? उ. गोयमा ! वत्थे साइए सपज्जवसिए, ___ अवसेसा तिण्णि विपडिसेहेयव्वा। प. जहा णं भंते ! वत्थे साइए सपज्जवसिए णो साइए
अपज्जवसिए, णो अणाइए सपज्जवसिए, णो अणाइए अपज्जवसिए तहा णं जीवा किं साइया सपज्जवसिया
जाव अणाइया अपज्जवसिया? उ. गोयमा ! अत्थेगइया साइया सपज्जवसिया जाव
अत्थेगइया अणाइया अपज्जवसिया। - प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
'अत्थेगइया साइया सपज्जवसिया जाव अत्थेगइया
अणाइया अपज्जवसिया?' ' उ. गोयमा ! नेरइया, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा,
गइरागई पडुच्च साइया सपज्जवसिया, सिद्धा गई पडुच्च साइया अपज्जवसिया, भवसिद्धिया लब्धिं पडुच्च अणाइया सपज्जवसिया, अभवसिद्धिया संसारं पडुच्च अणाइया अपज्जवसिया भवंति। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ
उ. गौतम ! कितने ही जीव सादि सान्त हैं यावत् कितने ही जीव
अनादि अनंत हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"कितने ही जीव सादि सान्त हैं यावत् कितने ही जीव अनादि
अनन्त हैं ?" उ. गौतम ! नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव, गति और
आगति की अपेक्षा सादि सान्त है, गति की अपेक्षा से सिद्धजीव सादि अनंत है, लब्धि की अपेक्षा भवसिद्धिक जीव अनादि सान्त हैं, संसार की अपेक्षा अभवसिद्धिक जीव अनादि अनन्त हैं।
इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि