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( १४८ ।।
जे यावऽण्णे तहप्पगारा।
ते समासओ दुविहा पण्णत्ता,तं जहा१.पज्जत्तया य, २. अपज्जत्तया य। तत्थ णं जे ते अपज्जत्तया ते णं असंपत्ता। तत्थ णं जे ते पज्जत्तया तेसिं वण्णादेसेणं, गंधादेसेणं, रसादेसेणं, फासादेसेणं, सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाई, जोणिप्पमुहसयसहस्साई।पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तया वक्कमति जत्थ एगो तत्थ सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अणंता।
एएसिंणं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ,तं जहा
१.कंदा य, २.कंदमूला य, ३. रूक्खमूलाइ यावरे। ४. गुच्छा य, ५. गुम्म, ६. वल्ली य, ७. वेलुयाणि, ८.तणाणि या ९-१०.पउमुप्पल, ११.संघाडे १२.हडे य,१३.सेवाल,१४.किण्हए॥ १५.पणए, १६.अवएय। १७. कच्छ, १८. भाणी, १९.कंडुक्केकूणवीसइमे।। तय-छल्लि-पवालेसु य पत्त-पुप्फ-फलेसु य। मूल-ग-मज्झ-बीएसु जोणी कस्स य कित्तिया।।३
द्रव्यानुयोग-(१) अन्य जो भी इस प्रकार की वनस्पतियां हों, (उन्हें लक्षणानुसार यथायोग्य समझ लेनी चाहिए।) वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. पर्याप्तक
२.अपर्याप्तक। उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे पूर्ण विकास को प्राप्त नहीं होते हैं। उनमें से जो पर्याप्तक हैं उनके वर्ण की अपेक्षा से, गन्ध की अपेक्षा से, रस की अपेक्षा से और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार हो जाते हैं। उनके संख्यात लाख योनिप्रमुख होते है। पर्याप्तकों के आश्रय से अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्तक जीव होता है, वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् अल्पसंख्यात और कदाचित् अनन्त अपर्याप्तक जीव उत्पन्न होते हैं। इन (साधारण और प्रत्येक वनस्पति-विशेष) के विषय में जानने के लिए इन गाथाओं का अनुसरण करना चाहिए, यथा१. कन्द,२. कन्दमूल और ३. वृक्षमूल, ४. गुच्छ, ५. गुल्म, ६. वल्ली, ७. वेणु और, ८. तृण। ९. पद्म, १०. उत्पल, ११.श्रृंगाटक, १२. हडे, १३. शैवाल १४. कृष्णक, १५. पनक, १६. अवक, १७. कच्छ, १८. भाणी और १९. कन्दुक्य। इन उपर्युक्त उन्नीस प्रकार के वनस्पतियों की त्वचा,छल्ली, प्रवाल (किसलय) पत्र, पुष्प, फल, मूल, अग्र, मध्य और बीज इनमें से किसी की योनि कुछ और किसी की कुछ कही गई है। यह साधारण शरीर वनस्पतिकायिक का स्वरूप हुआ। यह बादर वनस्पतिकायिक का वर्णन हुआ। यह वनस्पतिकायिकों का वर्णन भी पूर्ण हुआ।
इस प्रकार एकेन्द्रियसंसारसमापन्नक जीवों की प्ररूपणा पूर्ण हुई। ५९.निगोदों के भेद प्रभेदों का प्ररूपण
प्र. भंते ! निगोद कितने प्रकार के कहे गए हैं ? उ. गौतम ! निगोद दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१.निगोद
२.निगोदजीव। प्र. भंते ! निगोद कितने प्रकार के कहे गये हैं? . उ. गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा
से तं साहारणसरीरबायरवणस्सइकाइया। से तं बायरवणस्सइकाइया। से तंवणस्सइकाइया।
से तं एगिंदिया। -पण्ण.प.१, सु. ५४(२-११)५५ ५९.निगोयाणं भेयप्पमेय परूवणं
प. कइविहाणं भंते! णिगोदा पण्णत्ता? उ. गोयमा!दुविहा णिगोदा पण्णत्ता,तं जहा
१.निगोदाय २. निगोदजीवाय। प. णिगोदाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता? उ. गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तें जहा
१. अस्सकोण साहकाणी साउदी-युसंदी..या।
जे यावऽण्ण तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा१. पज्जत्तगा य २. अपज्जत्तगा य॥ तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता।
(स/ स.अ.३६, गा. १३५ २. (क) उत्त. अ. ३६ गा. ९६
(ख) जीवा. पडि. १, सु. २१ ३. जीवा. पडि. १ सु. २१