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जीव अध्ययन
दीवचंपगस्स अंतो-अंतो ओभासेइ जाव पभासइ, नो चेव णं दीवचंपगस्स बाहिं, नो चेव णं चउसट्ठियाए बाहिं, नो चेव कूडागारसालं, नो चेवणं कूडागारसालाए बाहिं
एवामेव गोयमा ! जीवे वि जं जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्धं बोद्धिं निव्वत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपएसेहिं सचित्तं करेइ खुड्डियं वा महालियं वा।
अष्टभागिका, षोडशिका, द्वात्रिंशतिका, चतुष्पष्टिका और दीपचम्पक (दीपक का ढकना) से ढके तो वह दीपक उस ढक्कन के भीतरी भाग को ही प्रकाशित.यावत् प्रभासित करेगा किन्तु ढक्कन के बाहरी भाग को प्रकाशित नहीं करेगा तथा न चतुष्पष्टिका के बाहरी भाग को, न कूटागारशाला को, न कूटागारशाला के बाहरी भाग को प्रकाशित करेगा। इसी प्रकार गौतम ! पूर्वभवोपार्जित कर्म के निमित्त से जीव को क्षुद्र (छोटे) या महत् (बड़े) जैसे भी शरीर की प्राप्ति होती है, उसी के अनुसार आत्मप्रदेशों को संकुचित और विस्तृत करने के स्वभाव के कारण वह उस शरीर को अपने असंख्यात आत्मप्रदेशों से व्याप्त करता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'हाथी और कुंथु का जीव समान प्रदेश वाला है।'
से तेणतुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ___ "हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे।"
-विया. स.७, उ.८,सु.२ १०. जीवपएसेसु सत्थपओगाभाव परूवणंप. अह भंते ! कुम्मे कुम्मावलिया, गोहे गोहावलिया, गोणे
गोणावलिया, मणुस्से मणुस्सावलिया, महिसे महिसावलिया, एएसि णं दुहा वा, तिहा वा, संखेज्जहा वा, छिन्नाणं जे अंतरा ते विणं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा?
उ. हंता, गोयमा ! फुडा। प. पुरिसे णं भंते ! ते अंतरे हत्थेण वा, पाएण वा,
अंगुलियाए वा, सलागाए वा, कटेण वा, किलिंचेण वा, आमुसमाणे वा, सम्मुसमाणे वा, आलिहमाणे वा, विलिहमाणे वा, अन्नयरेण वा तिक्वेणं सत्थजाएणं आच्छिदेमाणे वा, विच्छिदेमाणे वा, अगणिकाएणं वा समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आबाहं वा, वाबाहं
वा, उप्पाएइ? छविच्छेदं वा करेइ? उ. गोयमा ! णो इणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं संकमइ।
-विया. स.८,उ.३, सु.६
१०. जीवप्रदेशों में शस्त्र प्रयोगाभाव का प्ररूपणप्र. भंते ! कूर्म (कछुआ) कूर्मावली (कछुओं की श्रेणी) गोधा
(गोह) गोधा की पंक्ति (गोधावलिका) गाय, गायों की पंक्ति, मनुष्य, मनुष्यों की पंक्ति, भैंसा, भैंसों की पंक्ति इन सबके दो या तीन अथवा संख्यात टुकड़े किये जाएं तो उनके बीच का
भाग (अन्तर) क्या जीवप्रदेशों से स्पृष्ट होता है? उ. हां, गौतम ! वह (बीच का भाग जीवप्रदेशों से) स्पृष्ट होता है। प्र. भंते ! कोई पुरुष उन कछुए आदि के खण्डों के बीच भाग को
हाथ से, पैर से, अंगुलि से, शलाका (सलाई) से, काष्ठ से या लकड़ी के छोटे टुकड़े से थोड़ा स्पर्श करे, विशेष स्पर्श करे, थोड़ा सा खींचे या विशेष खींचे या किसी तीक्ष्ण शस्त्रसमूह से थोड़ा छेदे या विशेष छेदे अथवा अग्निकाय से उसे जलाए तो क्या उन जीवप्रदेशों को थोड़ी या अधिक बाधा उत्पन्न होती है
या उसके किसी भी अवयव का छेदन होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है (अर्थात् वह जरा सी भी पीड़ा
नहीं पहुंचा सकता और न अंगभंग कर सकता है) क्योंकि उन
जीवप्रदेशों पर शस्त्र (आदि) का प्रभाव नहीं होता। ११. ओदन आदि जीवों के पूर्व पश्चात् भाव प्रज्ञापना से शरीर की
प्ररूपणाप्र. भंते ! ओदन, कुल्माष, सुरा इन तीनों द्रव्यों को किन जीवों
का शरीर कहना चाहिए? उ. गौतम ! ओदन, कुल्माष और सुरा में जो धन द्रव्य हैं, वे
पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से वनस्पति जीव के शरीर हैं। इसके पश्चात् जब वे ओदनादि द्रव्य शस्त्रातीत हो जाते हैं, शस्त्रपरिणत हो जाते हैं, अग्निध्यामित, अग्निझुषित (अग्निसेवित) और अग्निपरिणमित हो जाते हैं, तब वे द्रव्य अग्नि के शरीर वाले कहे जा सकते हैं। सुरा में जो तरल द्रव्य (पदार्थ) है वह पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा अकायिक जीवों का शरीर है तत्पश्चात् शस्त्रातीत यावत् (अग्निपरिणमित हो जाता है) तब वह अग्निकाय
शरीर कहा जा सकता है। १२. लोह आदि के जीवों की शरीर प्ररूपणाप्र. भन्ते ! लोहा, ताम्बा, त्रपुष, शीशा, उपल और कसौटी ये सब
द्रव्य किन जीवों के शरीर कहलाते हैं ?
११. ओदणाइ जीवाणं पुव्वपच्छा भाव पण्णवणया सरीर परूवणं-
प. अह णं भंते ! ओदणे, कुम्मासे,सुरा एएणं किं सरीरा ति
वत्तव्वयं सिया? उ. गोयमा ! ओदणे, कुम्मासे, सुराए य जे घणे दव्वे एए णं
पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च वणस्सइजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्थातीया सत्थपरिणामिया अगणिज्झामिया अगणिज्झुसिया अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीरा त्ति वत्तव्यं सिया।
सुराए य जे दव्वे एए णं पुव्वभाव पण्णवणं पडुच्च आउजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिसरीरा त्ति वत्तव्यं सिया॥
व्यासपा"-विया.स.५, उ.२,सु.१४ १२. अयाइ जीवाणं सरीर परूवणंप. अह णं भंते ! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया
एएणं किं सरीरा ति वत्तव्यं सिया?