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द्रव्यानुयोग-(१) सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैतीस धनुष और एक धनुष का तिहाई भाग (बत्तीस अंगुल) होती है, ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है।
सिद्धों की मध्यम अवगाहना चार हाथ और तिहाई भाग कम एक हाथ (सोलह अंगुल) होती है, ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है।
तिण्णि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्यो। एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया। चत्तारि य रयणाओ, रयणितिभागूणिया य बोद्धव्वा। एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया॥ एक्का य होइ रयणी, साहिया अंगुलाई अट्ठ भवे। एसा खलु सिद्धाणं जहण्णोगाहणा भणिया।
ओगाहणाए सिद्धा, भवत्तिभागेण होंति परिहीणा। संठाणमणित्थत्थं,जरामरण-विप्पमुक्काणं ।
-उव.सु. १७०-१७५ २८.सिद्धाणं अवट्ठाण परूवणंप. कहिं पडिहया सिद्धा? कहिं सिद्धा पइट्ठिया?
कहिं बोंदि चइत्ताणं,कत्थं गंतूण सिज्झई॥
सिद्धों की जघन्य अवगाहना आठ अंगुल अधिक एक हाथ होती है, ऐसा सर्वज्ञों द्वारा भाषित है। सिद्ध अन्तिम भव की अवगाहना से तिहाई भाग कम अवगाहना युक्त होते हैं और जन्म जरा मरणादि से विप्रमुक्त सिद्धों का संस्थान अनित्यंथ (शरीर के आकारों से भिन्न) कहा गया है।
उ. अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया। इहं बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई॥२
-उव. गा.१६८-१६९ जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अण्णोण्णसमोगाढा, पुट्ठा सव्वे य लोगंते॥
२८. सिद्धों के अवस्थान का प्ररूपणप्र. सिद्ध किस स्थान पर प्रतिहत (रुक जाते) हैं? वे कहां
प्रतिष्ठित हैं? वे वहां इस लोक में देह को त्याग कर कहां
जाकर सिद्ध होते हैं ? उ. सिद्ध अलोक से प्रतिहत हैं, वे लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित
हैं, इस मनुष्यक्षेत्र में देह का त्याग कर वे सिद्ध स्थान में जाकर सिद्ध होते हैं। जहां एक सिद्ध स्थित हैं वहां भवक्षय और कर्ममल से विमुक्त अनन्त सिद्ध स्थित हैं,जो परस्पर अवगाढ हैं अर्थात् एक दूसरे में मिले हुए हैं। वे सब लोकाग्र भाग का संस्पर्श किये हुए हैं। (एक-एक) सिद्ध समस्त आत्म प्रदेशों द्वारा सिद्धों का सम्पूर्ण रूप से संस्पर्श किये हुए हैं और उनसे भी असंख्यातगुणे सिद्ध ऐसे हैं जो देश और प्रदेशों से एक दूसरे को संस्पर्श किये
फुसइ अणंते सिद्धे, सव्वपएसेहिं णियमसो सिद्धो। ते वि असंखेज्जगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥
-उव. गा.१७६-१७७
लोएगदेसे ते सव्वे नाणदंसण सन्निया। संसारपार नित्थिन्ना सिद्धिं वरगड़ गया।
-उत्त.अ.३६,गा.६७
ज्ञान और दर्शन से युक्त, संसार के पार पहुंचे हुए, सिद्धि नामक श्रेष्ठ गति को प्राप्त वे सभी सिद्ध लोक के एक देश में स्थित हैं।
२९. सिद्धाणं लक्खणं
असरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणे यणाणे य। सागारमणागारं,लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥३
२९. सिद्धों का लक्षण
सिद्ध शरीर रहित, सघन आत्म-प्रदेशों से युक्त तथा दर्शन एवं ज्ञानोपयोग से युक्त हैं। साकार (ज्ञान) तथा अनाकार (दर्शन) उपयोग सिद्धों का लक्षण है। केवल ज्ञानोपयोग द्वारा सभी पदार्थों के गुणों एवं पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवलदर्शन द्वारा समस्त भावों को देखते हैं।
केवलणाणुवउत्ता, जाणंती सव्वभावगुणभावे। पासंति सव्वओ खलु, केवलदिट्ठीहिणंताहिं॥
-उव.सु. १७८-१७९ ३०. एगत्त पुहत्तेण सिद्धाणं साई अणाईत्त परूवणं
३०. एकत्व बहुत्व की अपेक्षा सिद्धों के सादि अनादित्व का
प्ररूपणएक (मुक्त जीव) की अपेक्षा से सिद्ध सादि अनन्त हैं और अनेक (मुक्त जीवों) की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं।
एगत्तेण साईया अपज्जवसिया वि य। पुहुत्तेण अणाईया अपज्जवसिया वि य॥
-उत्त.अ.३६,गा.६५
१. २.
सम.सु.१०४ उत.अ.३६ गा.५५-५६
३. अरूविणो जीवघणा, नाणदंसण सन्निया।
अउलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स नत्थि उ॥
-उत्त.अ.३६ गा.६६