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द्रव्यानुयोग-(१) "कितने ही जीव सादि सान्त हैं यावत् कितने ही जीव अनादि
अनन्त हैं।" १७. लोक में भवसिद्धिक जीवों का अभाव नहींप्र. भंते ! जीवों का भवसिद्धिकत्व स्वाभाविक है या
पारिणामिक है? उ. जयन्ती ! वह स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं है। प्र. भंते ! सभी भवसिद्धिक जीव क्या सिद्ध हो जाएंगे? उ. हॉ, जयन्ती ! सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएंगे।
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"अत्थेगइया साइया सपज्जवसिया जाव अत्थेगइया
अणाइया अपज्जवसिया।" -विया. स. ६, उ. ३, सु. ८-९ १७. लोगे भवसिद्धिया जीवाणं न अभावप. भवसिद्धियत्तणं भंते ! जीवाणं किं सभावओ,
परिणामओ? उ. जयंति ! सभावओ, नो परिणामओ। प. सव्वे विणं भंते ! भवसिद्धीया जीवा सिज्झिस्संति? उ. हंता, जयंती ! सव्वे वि णं भवसिद्धीया जीवा
सिज्झस्संति। प. जइ णं भंते ! सव्वे भवसिद्धीया जीवा सिज्झिस्संति तम्हा
णं भवसिद्धीयविरहिए लोए भविस्सइ? उ. जयन्ती ! णो इणठे समठे। प. सेकेणं खाइएणं अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"सव्वे विणं भवसिद्धीया जीवा सिज्झिस्संति नो चेव णं
भवसिद्धीयविरहिए लोए भविस्सइ?" उ. जयंति ! से जहानामए सव्वगाससेढी सिया अणाईया
अणवदग्गा परित्ता परिवुडा, सा णं परमाणुपोग्गलमेत्तेहिं खंडेहिं समए-समए अवहीरमाणी अवहीरमाणी अणंताहिं
ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहिं अवहीरंति नो चेवणं अवहिया सिया।
प्र. भंते ! यदि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएंगे तो क्या
लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित हो जाएगा? उ. जयन्ती ! यह अर्थ शक्य नहीं है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध होंगे फिर भी लोक भवसिद्धिक
जीवों से रहित नहीं होगा?" उ. जयन्ती ! जिस प्रकार कोई सम्पूर्ण आकाश की श्रेणी हो, जो
अनादि अनन्त हो वह एक प्रदेशी होने से परिमित और (अन्य श्रेणियों द्वारा) परिवृत हो, उसमें से प्रतिसमय एक-एक परमाणु पुद्गल जितना खण्ड निकालते-निकालते अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी पर्यन्त निकाला जाए तो भी वह श्रेणी अपहृत (समाप्त) नहीं होती है। इसी प्रकार हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि"सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध होंगे फिर भी लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा।"
से तेणठेणं जयंति ! एवं वुच्चइ'सव्वे विणं भवसिद्धीया जीवा सिज्झिस्संति नो चेव णं भवसिद्धीय विरहिए लोए भविस्सइ।"
-विया. स. १२, उ. २, सु. १५-१७ १८. जीव निव्वत्तीए भेयप्पभेय परूपणं
प. कइविहाणं भंते !जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता? उ. गोयमा ! पंचविहा जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा' १.एगिंदियजीवनिव्वती जाव ५.पंचिंदियजीवनिव्वत्ती। प. एगिंदियजीवनिव्वती णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता? उ. गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता,तं जहा
१. पुढविकाइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती जाव
५. वणस्सइकाइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती। प. पुढविकाइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती णं भंते ! कइविहा
पन्नत्ता? उ. गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा
१. सुहुम पुढविकाइय एगिंदिजीवनिव्वत्तीय, २. बायर पुढवि-काइयएगिंदिय जीवनिव्वत्तीय, एवं एएणं अभिलावणं भेओ जहा वड्ढगबंधे
तेयगसरीरस्स जाव' . प. सव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पाईय वेमाणियदेव
पंचेन्दिय जीवनिव्वत्ती णं भंते ! कइविहा पण्णता? १. पुद्गल-अध्ययन में देखें
१८.जीव निवृत्ति के भेद प्रभेदों का प्ररूपण
प्र. भंते ! जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है? उ. गौतम ! जीवनिर्वृत्ति पांच प्रकार की कही गई है, यथा
१. एकेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति यावत् ५. पंचेन्द्रिय जीव निर्वृत्ति। प्र. भंते ! एकेन्द्रिय जीव निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है? उ. गौतम ! पांच प्रकार की कही गई है, यथा
१. पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव निर्वृत्ति यावत्
५. वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवनिर्वृत्ति। प्र. भंते ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की
कही गई है? उ. गौतम ! वह दो प्रकार की कही गई है, यथा
१. सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव निर्वृत्ति २. बादरपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीवनिर्वृत्ति। इस अभिलाप द्वारा आठवें शतक के नौवें उद्देशक के बृहद बन्धाधिकार में कथित तैजस शरीर के भेदों के समान यहां भी
जानना चाहिए यावतप्र. भंते ! सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देव
पंचेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है?
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