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अनंताणं विभंगणाण पज्जवाणं,
अनंताणं चक्सुदंसणपञ्जवाणं, अणंताणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं,
अणंताणं ओहिदंसणपज्जवाणं, अणंताणं केवलदंसणपरजवाण उवओगं गच्छद
उवओगलक्खणे णं जीवे ।
प. पौग्गलऽत्थिकाए णं भंते! जीवाणं किं पवत्तइ ?
उ. गोयमा ! पोग्गलऽत्थिकाए णं जीवाणं ओरालियवेउब्बिय आहारग तेया कम्मा सोइंदिय दियघा
दिय-जिब्भिंदिय- फासिंदिय-मणजोग-वइजोगकायजोग आणपाणूणं च गहणं पवत्तइ
गहणलक्खणे णं पोग्गलऽत्थिकाए ।
३. पंचऽत्थिकायाणं परजाय सदा
प. धम्मऽत्थिकायस्स णं भंते! केवइया अभिवयणा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा अनेगा अभिवयणा पण्णत्ता तं जहाधम्मे इ वा धम्मऽत्यिकाए इ वा, पाणाइवायवेरमणे इ वा जाव परिग्गहवेरमणे इ वा, कोहविवेगे इ वा जाब मिच्छादंसणसल्लवियेगे इवा, इरियासमिई इ वा जाव उच्चार पासवण खेल-जल्ल सिंघाण पारिगायणियासमिई इ वा
- विया. स. १३, उ. ४, सु. २४-२८
मोती इ वा जाव कायगुत्ती इ वा ।
जे यावऽन्ने तहप्पगारा, सव्वे ते धम्मऽत्थिकायस्स अभिययणा,
प. अधम्मऽत्विकायरस णं भंते केवइया अभिवयणा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा
अधम्मे इ वा अधम्मऽत्विकाए इ वा
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पाणाइवाय अवेरमणे इ या जाव परिग्गह-अवेरमणे
इवा,
कोह-अधिवेगे इ वा जाव मिच्छादंसणसल्ल अविवेगे इवा,
ईरिया असमिई इ वा जाब उच्चार पासवण खेलसिंघाण जल्ल पारिठ्ठावणिया असमिई वा मणअगुती ६ वा जाव काय अगुत्ती इवा,
जे यावऽने तहपगारा, सव्ये ते अधम्मऽत्यिकायस्स
अभिययणा,
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-
प. आगासऽत्विकायस्स णं भंते! केवइया अभिवयणा
पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! अनेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा
प्र.
उ.
द्रव्यानुयोग - (१)
अनन्त विभंगज्ञान की पर्यायों के,
अनन्त चक्षुदर्शन की पर्यायों के, अनन्त अचक्षुदर्शन की पर्यायों के,
अनन्त अवधिदर्शन की पर्यायों के, अनन्त केवलदर्शन की पर्यायों के उपयोग को प्राप्त होता है,
जीव का लक्षण उपयोग रूप है।
भंते ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? गौतम ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस्, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय परिन्द्रिय प्राणेन्द्रिय जिकेन्द्रिय स्पर्शेन्द्रिय मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वास- उच्छ्वास को ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है।
"
"
पुद्गलास्तिकाय का लक्षण ग्रहण रूप है।
,
३. पंचास्तिकायों के पर्यायवाची शब्द
प्र. घंते । धर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन (पर्यायवाची शब्द ) कहे गए हैं ?
उ. गौतम अनेक अभिवचन कहे गए हैं, यथा
धर्म या धर्मास्तिकाय,
"
प्राणातिपात विरमण यावत् परिग्रह-विरमण
क्रोध - विवेक यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक, ईर्यासमिति यावत् उच्चार- प्रस्रवण- खेल - जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिका समिति,
मनोगुप्ति यावत् कायगुप्ति
ये और इसी प्रकार के जितने भी दूसरे शब्द हैं वे सब धर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं।
प्र. भंते ! अधर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ?
उ. गौतम ! अनेक अभिवचन कहे गए हैं, यथाअधर्म या अधर्मास्तिकाय,
प्राणातिपात अविरमण यावत् परिग्रह अधिरमण,
क्रोध अविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य अविवेक,
ईर्याअसमिति यावत् उच्चार-प्रस्रवण खेल जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिका असमिति,
मन- अगुप्ति यावत् काय अगुप्ति,
ये और इसी प्रकार के जितने भी दूसरे शब्द हैं वे सब अधर्मास्तिकाय के अभिवचन है।
प्र. भंते! आकाशास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ?
उ. गौतम ! अनेक अभिवचन कहे गए हैं,
यथा