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द्रव्यानुयोग-(१) (१०) जीव सुप्त भी हैं, जागृत भी हैं और सुप्त-जागृत भी हैं। इनमें नैरयिक, भवनपति, स्थावर एवं विकलेन्द्रिय जीव सुप्त हैं, वे न जागृत हैं और
न सुप्त-जागृत हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव सुप्त हैं और सुप्त-जागृत हैं किन्तु जागृत नहीं है। मनुष्य सामान्य जीवों की तरह तीनों प्रकार का होता है, जबकि वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव नैरयिकों की भांति सुप्त होते हैं। यहां पर सुप्त, जागृत आदि शब्द आध्यात्मिक
अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। (११) द्रव्य की दृष्टि से जीव शाश्वत है और पर्याय की दृष्टि से जीव अशाश्वत है। (१२) जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षु इन्द्रिय की अपेक्षा जीव कामी हैं तथा घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की
अपेक्षा वे भोगी हैं। (१३) अजीव द्रव्य जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं किन्तु जीव द्रव्य अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं। जीव द्रव्य अजीव द्रव्य (पुद्गल)
को ग्रहण करके उन्हें शरीर, इन्द्रिय, योग एवं श्वासोच्छ्वास में परिणत करते हैं, जबकि अजीव द्रव्य जीव द्रव्य का परिभोग नहीं करते। जैन आगमों की यह पद्धति रही है कि इनमें जीव से सम्बद्ध विभिन्न तथ्यों को २४ दण्डकों में घटित किया जाता है। इस अध्ययन में ऐसे अनेक तथ्य हैं जिन्हें २४ दण्डकों में घटित किया गया है। अधिकरण और अधिकरणी, आत्मारम्भी, परारम्भी, तदुभयारम्भी और अनारम्भी, सकम्प और निष्कम्प आदि तथ्यों को इन दण्डकों में प्रदर्शित करना इसका प्रमाण है।
कालादेश से २४ दण्डकों में 9. सप्रदेश, २. आहारक, ३. भव्य, ४. संज्ञी, ५. लेश्या, ६. दृष्टि, ७. संयत, ८. कषाय, ९. ज्ञान, १०. योग, ११. उपयोग, १२. वेद, १३. शरीर और १४. पर्याप्ति इन चौदह द्वारों का भी यहाँ निरूपण हुआ है।
१. समाहार, समशरीर और समश्वासोच्छ्वास, २. कर्म, ३. वर्ण, ४. लेश्या, ५. समवेदना, ६. समक्रिया तथा ७. समायुष्क इन सात द्वारों का भी २४ दण्डकों में निरूपण किया गया है। नैरयिकादि जिन जीवों में आहार, शरीर एवं श्वासोच्छ्वास की भिन्नता होती है इसमें प्रमुख कारण उनके शरीर का छोटा-बड़ा होना है। चौबीस ही दण्डकों में इन सात द्वारों का अध्ययन विभिन्न जीवों की भिन्न-भिन्न विशेषताओं को जानने के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
१.स्थिति, २. अवगाहना, ३. शरीर, ४. संहनन, ५. संस्थान, ६. लेश्या,७. दृष्टि, ८. ज्ञान, ९. योग और १०. उपयोग इन दस स्थानों या द्वारों से २४ दण्डकों में क्रोधोपयुक्त आदि भंगों के निरूपण का अध्ययन भी जीवों के सम्बन्ध में विशिष्ट जानकारी प्रदान करता है। इनके अतिरिक्त प्रस्तुत अध्ययन में २४ दण्डकों में अध्यवसायों, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व एवं सम्यक्मिथ्यात्वाभिगमियों, सारम्भ एवं सपरिग्रहियों, सत्कार-विनयादि भावों, उद्योत एवं अंधकार, समयादि के प्रज्ञान, गुरुत्व-लघुत्वादि विषयक विचारों, भवसिद्धिकत्व, उपधि और परिग्रह, वर्णनिवृत्ति, करण के भेदों, उन्माद के भेदों आदि विविध विषयों का विशद निरूपण हुआ है। यह सारा निरूपण एक विशेष दृष्टि प्रदान करता है।
जीवों के साथ कायस्थिति का वर्णन भी विशिष्ट महत्त्व रखता है। एक ही प्रकार की अवस्था जितने काल तक बनी रहती है उसे उसकी कायस्थिति कहते हैं। इस दृष्टि से जीव सदा काल जीव ही बना रहता है। एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक बना रहता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीव की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक होती है। नैरयिक की कायस्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम होती है। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम होती है। इसी प्रकार मनुष्यों की कायस्थिति कही गई है। देवों की कायस्थिति नैरयिकों के तुल्य जघन्य १० हजार वर्ष और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम होती है। सिद्ध जीव सिद्ध रूप में सादि एवं अपर्यवसित काल तक रहते हैं। कायस्थिति का निरूपण सकायिक-अकायिक, त्रस-स्थावर, पर्याप्त-अपर्याप्त, सूक्ष्म-बादर, परीत-अपरीत, भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक आदि के अनुसार भी किया गया है।
कायस्थिति के साथ अन्तरकाल का भी सम्बन्ध है। इस अध्ययन में अन्तरकाल का भी निरूपण हुआ है। एकेन्द्रिय का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। विकलेन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव इन सबका अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। सिद्ध सादि अपर्यवसित होते हैं अतः उनका अन्तरकाल नहीं होता। अन्तरकाल से तात्पर्य है एक दण्डक को छोड़कर पुनः उस दण्डक में जन्म ग्रहण करने के बीच का काल। इस अन्तरकाल का प्रस्तुत अध्ययन में विविध विवक्षाओं से निरूपण हुआ है।
अल्प-बहुत्व की दृष्टि से विचार करें तो सिद्ध जीव सबसे अल्प हैं, असिद्ध या संसारी जीव उनसे अनन्त गुणे हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि सिद्ध जीव भी अनन्त होते हैं और संसारी जीव भी अनन्त होते हैं फिर भी वे समान संख्यक नहीं है, अपितु सिद्धों की अपेक्षा संसारी जीव अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार अनन्त भी अनन्तगुणा हो सकता है। दिशा की दृष्टि से सबसे अल्प जीव पश्चिम दिशा में हैं और उत्तर दिशा में सबसे अधिक हैं। पृथ्वीकायिक आदि सभी जीवों का भी अल्प-बहुत्व विभिन्न दिशाओं की दृष्टि से इस अध्ययन में निरूपित हुआ है। समस्त संसारी जीवों में सबसे अल्प गर्भज मनुष्य हैं तथा वनस्पतिकाय के जीव सबसे अधिक हैं। अल्प-बहुत्व का इस अध्ययन में विभिन्न दृष्टियों से विचार हुआ है। योग की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यक्लोक एवं त्रैलोक्य की अपेक्षा भी अल्प-बहुत्व का प्रतिपादन हुआ है। सूक्ष्म-बादर की अपेक्षा से कहें तो सबसे अल्प जीव नोसूक्ष्म-नोबादर हैं, उनसे बादर जीव अनन्तगुणे हैं और उनसे सूक्ष्म जीव असंख्यात गुणे हैं। पर्याप्तक-अपर्याप्तक, सकायिक-अकायिक, त्रस-स्थावर, परीत-अपरीत आदि अपेक्षाओं से भी अल्प-बहुत्व का निरूपण है।
इस प्रकार यह जीव द्रव्य अध्ययन जीव से सम्बद्ध विभिन्न पक्षों की विशिष्ट आगमिक जानकारी से सम्पन्न है।